Sunday, January 31, 2016

जो जन जाकी सरन है,....

जो जन जाकी सरन है, ताकी तिस को लाज।
उलटि धार मछरी चलै, बहै जातु गजराज।।

अर्थः-गजराज बड़े डील-डौल का तथा बलवान प्राणी है, किन्तु नदी की तीव्र धारा के सम्मुख नहीं ठहर सकता। धारा के बहाव में वह बहा चला जाता है। कारण इसका सन्तों ने यह बतलाया है कि वह जल का शरणागत नहीं है अर्थात् उसका मन जल से मिला हुआ नहीं है। इसलिये उसे जल बहा ले जाता है। जबकि मछली जो जल की शरणागत है और जिसका मन जल से मिला हुआ है, छोटी और निर्बल होती हुई भी नदी की तीव्र धारा के विपरीत दिशा में सरलतापूर्वक तैरती चली जाती है। जल की तीव्र धारा का बहाव भी उसे मार्ग दे देता है और वह उसे चीरती हुई निकल जाती है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो कोई जिसकी शरण शुद्ध मन से ग्रहण कर लेता है; शरण्य को उसकी लाज रखनी होती है।

Saturday, January 30, 2016

कस्तूरी कुण्डल बसै...

कसतूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे बन माहिं।
ऐसे ही घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं।।
तेरा सार्इं तुझ में, ज्योंं पुहपन में बास।
कसतूरी का मिरग ज्यों, फिरि फिरि ढूँढै घास।।

अर्थः-कसतूरी तो मृग की अपनी नाभि में ही विद्यमान है; किन्तु भ्रमवश वह उसे जंगल की झाड़ियों में तलाश करता रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के घट ही में प्रभु की दिव्य ज्योति का दर्शन सहज सुलभ है; किन्तु संसारी प्राणी उससे बेखबर हैं। ऐ इन्सान! तेरा सच्चा मालिक तेरे अन्दर इस प्रकार समाया हुआ है, जिस प्रकार फूलों के अंदर सुगंधि बसी हुई रहती है, परन्तु जिस प्रकार कस्तूरी वाला हिरण उस सुगंधि को बार बार घास में ढूँढता और व्यर्थ परेशान होता है। इसी प्रकार तू भी अपने से बाहर सच्चे रुहानी सुख की खोज केवल भूल भरम के कारण करता फिरता है।

Friday, January 29, 2016

पूरब पाप से हरि चर्चा न सुहाये

तुलसी पूरब पाप से, हरि चर्चा न सुहाय।
कै ऊँघै कै लड़ि परै, कै उठकर घर को जाय।।

सन्त तुलसी साहिब का कथन है कि पूर्वजन्म के पापों के कारण ही किसी किसी को मालिक के नाम की चर्चा तथा सतसंग आदि में रस की अनुभूति नहीं होती। वे या तो सत्संग में बैठे बैठे ऊँघने लगते हैं या किसी से लड़ाई झगड़ा कर बैठते हैं; अथवा फिर सत्संग में रुचि न लगने के कारण उठकर घर को चल देते हैं।

Thursday, January 28, 2016

गुरु भक्ति

अनन्य भक्ति उपजी नहीं गुरु सों नाहीं सीर।
सहजो मिलै न सिन्धु कूँ, ज्यौं तालाब को नीर।।

अर्थः-जिस जीव के ह्मदय में अनन्य प्रेम भक्ति उत्पन्न नहीं हुई तथा गुरु से जिसका गहरा सम्बन्ध अथवा प्रेम नहीं है, सहजोबाई जी के विचार से उसकी अवस्था तालाब के उस जल जैसी है, जो चारदीवारी में बन्द हो जाने के कारण समुद्र तक नहीं पहुँच सकता क्योंकि वह सरोवर की परिधि में बंद है, इसलिये समुद्र में उसका समाहित होना असम्भव है। विचार किया जाये तो सरोवर के जल का उद्गम भी समुद्र ही है और वह समुद्र का अंश है, इसलिये उसे अपने अंशी अर्थात् समुद्र से मिलना ही चाहिये। ग्रीष्मकाल की उष्णता के कारण समुद्र-जल वाष्प बनकर उड़ा। उस ने मेघ का रुप धारण किया और पृथ्वी पर बरसा। वर्षा का जो जल नदी नालों में एकत्र हुआ, वह तो दौड़ता हुआ समुद्र में जा मिला। परन्तु वर्षा के जो बूँद छोटे बड़े गढ़ों, झीलों तथा सरोवरों में जा एकत्र हुए, वह समुद्र नें नहीं मिल सकते। कारण यह कि वह चारदीवारी में बंद हैं। इस कैद में पड़ा पड़ा वह जल कीच बनकर गंदा और खराब होगा, खड़ा-खड़ा सड़ता रहेगा, उसमें मच्छर मक्खी तथा अन्यान्य विषैले कीटों के आवास बनेंगे। सड़ाँध और दुर्गन्ध उत्पन्न होगी। वह जल स्वयं खराब हुआ, लोगों में रोग फैलाने का हेतु भी बनेगा। परन्तु जिस सागर का वह अंशज था और जिससे बिछुड़कर यहाँ आया था; उस अंशी तक लौट जाने की न कोई सम्भावना है, न आशा ही।

Wednesday, January 27, 2016

नारायण हरि लगन में, ये पांचों न सुहात......

नारायण हरि लगन में, ये पांचों न सुहात।
विषयभोग निद्रा हंसी, जगत प्रीत बहु बात।।

अर्थः-फरमाते हैं कि ऐ जिज्ञासु! यदि भक्ति मार्ग में उन्नति करनी है तो पांच चीज़ों से सख़्त परहेज़ करना होगा। 1.-विषयभोग-विषय भोगों से मनुष्य रोगी बनता है। भक्तिमान को तो योगी बनना है, इसलिये विषयभोग से परहेज़ करो। 2. अधिक नींद से भी परहेज़ रखो; क्योंकि सोये सो खोये, जागे सो पाये। सोने से सुस्ती और जागने से चुस्ती आती है। श्रुती में वर्णन आया है कि सुस्त व्यक्ति आत्मोन्नति नहीं कर सकता। 3. हँसी-ठट्ठे की आदत से बचो-आम कहावत है कि बीमारी का मूल खांसी और लड़ाई का मूल हांसी। हंसी-मज़ाक में ही द्रौपदी ने दुर्योधन से कहा था कि अन्धे की अन्धी सन्तान। उस हंसी-मज़ाक का परिणाम कितना भयानक निकला    ? इस बुरी आदत से परहेज़ करो। 4. जगत-प्रीत को दिल से हटा दो-सत्पुरुषों ने भी फरमाया है कि जगत मैं झूठी देखी प्रीति। संसार में सब स्वार्थ के साथी हैं; इसलिये भक्तिमान को संसारियों के प्यार से परहेज़ रखना चाहिये। 5. बहुबात-बहुत बोलने या व्यर्थ बोलने से मनुष्य अपनी आत्मिक शक्ति को व्यर्थ व्यय करता रहता है। जहां तक हो सके चुप रहने की आदत बनानी चाहिये। आवश्यकता के समय कम से कम शब्द बोलने चाहिये।

Tuesday, January 26, 2016

द्वार धनी के पड़ि रहै, धका धनी का खाय

द्वार धनी के पड़ि रहै, धका धनी का खाय।
कबहुँक धनी निवाजई, जो दर छाड़ि न जाय।।

अर्थः-परमसन्त श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि ऐ सेवक! दृढ़ निश्चय से सद्गुरुदेव पूर्ण धनी के द्वार पर पड़े रहो और उनकी ओर से कितने भी कष्ट झेलने पड़ें और धक्के खाने पड़ें, प्रसन्नतापूर्वक सहन करो। यदि दृढ़ निश्चय के साथ डटे रहोगे और द्वार छोड़ कर भाग न जाओगे तो एक न एक दिन धनी की कृपादृष्टि अवश्य ही तुम पर पड़ेगी और तुम प्रभु के प्रेमास्पद बन जाओगे।

Monday, January 25, 2016

अक्ख फरकनी न मिले

अक्ख फरकनी न मिले, मुँह विच रहै गिराह।
लख लानत है सुथरिया, जे दम दा करें वेसाह।।

श्री सुथरेशाह साहिब का कथन है कि जब मृत्यु का समय आयेगा, तब आँख झपकाने की भी मुहलत नहीं मिल सकेगी और मुख का ग्रास मुख में ही रह जायेगा। उस ग्रास को निगल सकने की भी फुर्सत नहीं होगी। जबकि मौत इस तरह अचानक ही टूटने वाली है; तब यदि तू एक साँस का भी भरोसा रखे, तो तुझ पर लाख लाख लानत है।

Sunday, January 24, 2016

गुरु से कर मेल गँवारा...

गुरु से कर मेल गँवारा। का सोचत बारम्बारा।।
जब पार उतरना चहिये। तब केवट से मिलि रहिये।।
जब उतरि जाय भव पारा। तब छूटै यह संसारा।।
जब दरसन देखा चहिये। तब दर्पन माँजत रहिये।।
जब दर्पन लागत काई। तब दरस कहँ ते पाई।।

अर्थः-ऐ जीव! यदि संसार की कल्पना, क्लेश और अशान्ति से छुटकारा पाना है, तो गुरु से मिलने का जतन कर इसमें बार बार सोचने-विचारने की क्या आवश्यकता है? सीधी सी बात है कि जिसे पार उतरना हो, वह केवट से मिले। तथा जब तू मल्लाह से मिलकर भवसागर के पार हो जायेगा; तब संसार के जितने भी क्लेश हैं, वे सब अपने आप ही छूट जायेंगे। दूसरी बात जिसे अपना मुख देखने की इच्छा हो; उसे चाहिये कि दर्पण को माँझकर साफ करे, तब मुख साफ साफ देखने में अपने आप ही आ जायेगा। इसी प्रकार जब तक मन रुपी दर्पण पर मायावी संस्कारों की मैल चढ़ी है, तब तक भला आत्म-स्वरुप कैसे देखने में आ सकता है? ज़रुरत है कि गुरु के शब्द की रगड़ से पहले मन के दर्पण को शुद्ध कर लिया जाये, तब स्वयंमेव अपने स्वरुप का साक्षात्कार हो जायेगा।