Monday, June 27, 2016

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।
डेरा परिया काल का, निशिदन रोकै बाट।।
अर्थः-खाहिश का बीज ऐसा है कि यदि मुट्ठी भर बोया जाये, तो मन भर उगता है। ज़रा सी खाहिश बढ़कर और फैलकर इतना दीर्घ सूत्रपात करती हैं कि फिर उनके फैलाये जाल को तोड़ सकना असम्भव सा हो जाता है। और यह तो मानी हुई बात है ही कि जिस मन में वासनाओं का तूफान होगा वहाँ काल का डेरा भी अवश्य जमा रहेगा और वह रात-दिन तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति मार्ग में रुकावट डालता रहेगा।

Friday, June 24, 2016

21.06.2016

अधिक सनेही माछरी, दूजा अल्प सनेह।
जब ही जल से बिछुरै, तत छिन त्यागै देह।।
अर्थः-मछली का जल के प्रति प्रबल प्रेम है। उसकी तुलना में प्रेम के अन्यान्य उदाहरण तुच्छ हैं। क्योंकि मछली तो ज्योंही जल से बिछुड़ती है, उसी क्षण तड़पने लगती है और तड़पती हुई प्राणोत्सर्ग कर देती है। जब पशु-पक्षियों और साधारण जीवों के चित्त में प्रेम की इतनी प्रबल भावनाएँ विद्यमान हैं, तो फिर विचार करो कि गुरुमुखों का मालिक के चरणों में कितना अधिक प्रेम होना चाहिये।

Tuesday, June 21, 2016

मैं मेरी जब जायेगी, तब आवेगी और।

मैं मेरी जब जायेगी, तब आवेगी और।
जब यह निश्चल होयगा, तब पावैगा ठौर।।
मोर तोर की जेवड़ी, बटि बाँध्यौ संसार।।
दास कबीरा क्यों बँधै, जाकै नाम अधार।।
अर्थः-""ऐ भद्रपुरुष! जब तू मैं-मेरी की झपट से निकलकर तू-तेरी के चंगुल से भी निकल आवेगा; तब कहीं जाकर मोक्षधाम की देहली पर पहुँचेगा।'' ""ऐ प्रेमी! सचजान, यह सारा संसार मेरे और तेरेपने की सुदृढ़ रस्सियों में ऐसा जकड़ा पड़ा है कि सैंकड़ों जन्म तक भी इन रस्सियों से छुटकारा नहीं पा सकता। यदि किसी मनीषी के मन में अपने सत्गुरु के बख्शे हुये पवित्र नाम की दृढ़ टेक है, तो केवल वही एक मुक्त पुरुष है। वह मेरे-तेरे पने का सब पर्दा फाड़कर अमृत-पान करने का अधिकारी बन जाता है।''

Friday, June 17, 2016

कह कबीर छूछा घट बोले। भरया होय सो कबहुं न डोले।।

कह कबीर छूछा घट बोले। भरया होय सो कबहुं न डोले।।
छुद्र नदी भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।

अर्थः-""फरमाते हैं कि सदैव रीता घड़ा ही आवाज़ करता है, भरा हुआ घड़ा आवाज़ नहीं करता।'' ""छोटे छोटे नदी-नाले वर्षा के दिनों में किनारों को तोड़ते हुये उछल-उछल कर बहने लगते हैं जैसे अज्ञानी और दुष्ट मनुष्य थोड़े से धन पर भी अहंकार करने लगता है। इसके विपरीत गम्भीर नदियां बारह मास ही अत्यन्त शान्त गति से प्रवाहित होती रहती हैं जैसे कुलीन धनवान् लोग करोड़पति होकर भी विनीत, सुशील एवं शान्तचित्त बने रहते हैं।

Wednesday, June 15, 2016

चरनदास यों कहत है,

चरनदास यों कहत है, सुनियो सन्त सुजान।
मुक्ति मूल अधीनता, नरक मूल अभिमान।।

अर्थः-नम्रता से ही मुक्ति मिलती है। अर्थात् मुरीद बनने के लिए नम्रता का गुण आवश्यक है। अभिमान तो पतन की ओर ले जाने वाला है। अतः जब तक अहंकार की भावना विद्यमान है तब तक मुरीद नहीं कहला सकता।

Monday, June 13, 2016

भले से भला करे, यह जग का व्यवहार।

भले से भला करे, यह जग का व्यवहार।
                बुरे से भला करे, ते विरले संसार।।
प्रायः संसार में यही देखने में आता है कि जो भलाई करे लोग उसके साथ ही भलाई करते हैं, परन्तु उदारता तो इसी में है कि मनुष्य बुराई के बदले भलाई करे जैसे कि वृक्ष पत्थर मारने वाले को भी फल और छाया देता है। अतएव ऐ जिज्ञासु! तू भी ऐसा करना सीख और बुराई के बदले भलाई कर।
तराज़ू से अदल का हुनर पायाः-अदल का अर्थ है न्याय अर्थात् उचित और अनुचित का विवेक। तराज़ू सबको न्याय सिखाता है। ज़रा सी वस्तु घट-बढ़ जाने पर फौरन ही पलड़ा नीचे-ऊपर हो जाता है। दूसरे की आत्मा को अपनी आत्मा के सदृश जान कर ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे दूसरों की आत्मा को दुःख हो। अपनी आत्मा में तनिक सी मलिनता आने पर उसका प्रभाव दूसरों की आत्मा पर पड़ता है। भाव यह कि दूसरों के लिये वह मत सोचो जो तुम्हें स्वयं के लिये अच्छा नही लगता। दूसरों को अपने से हीन समझना अपनी ही हीनता है। फारसी कवि का कथन हैः-
                हर चे बर ख़ुद म पसन्दी, ब दीगरां म पसन्द।।
अर्थात् जो तुम्हें पसन्द नहीं है वह दूसरों के लिये भी अच्छा मत समझो।
करो इख़लास सबसे एक जैसा, माहेताबां ने यह नुस्खा पढ़ायाः- इख़लास का अर्थ है व्यवहार और माहेताबां का अर्थ है चांदनी। जैसे चांदनी हर स्थान पर और हर वस्तु पर एक सी रोशनी व ठंडक बरसाती है वैसे ही मनुष्य को हर किसी से हमदर्दी और प्रेम का व्यवहार करना चाहिये। जैसे चांद रोशनी देता है वैसे ही परमार्थी का जीवन लोगों के लिये आत्मिक रोशनी देने वाला एवं पथ प्रदर्शक सिद्ध हो। ऐ जिज्ञासु! तुझे भी यदि जीवन के लक्ष्य को पाने की अभिलाषा है तो सबके साथ समान भाव और निःस्वार्थ भाव से प्रेम भरा व्यवहार कर तभी तू अपने लक्ष्य को पा सकेगा। कितना परमार्थ अर्थात् रुहानी राज़ भरा हुआ है सत्पुरुषों के एक एक वचन में।
     श्री परमहँस दयाल जी फरमाते हैं कि ऐ जिज्ञासु! प्रकृति की प्रत्येक जड़ वस्तु तुझे शिक्षा दे रही है, तू उनसे शिक्षा ले और अपने जीवन को तदनुरुप आचरण में ढाल। हमने भी इन जड़ वस्तुओं से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उनकी शिक्षानुसार बनाया तभी अपने ध्येय को प्राप्त करने में सफल हुये। सन्त महापुरुष सदा इसी मार्ग पर चलते आये हैं और चलते रहेंगे। परमार्थ,परोपकार, समदृष्टि, न्यायोचित व्यवहार, सच्चाई तो उनके मुख्य नियम व सिद्धांत हैं। इन नियमों के पालन करने से ही सत्पुरुषों की पदवी प्राप्त होती है। वास्तव में नेक आचरण ही जीवन है। यही एक मात्र साधन है अपने ध्येय की प्राप्ति का।  इसी मार्ग पर चल कर जिज्ञासु को अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिये।

Saturday, June 11, 2016

बन्दे कोलों रुख चंगेरा, जेहड़ा लग पवे बिन लायों।

बन्दे कोलों रुख चंगेरा, जेहड़ा लग पवे बिन लायों।
ढीमा खाये ते फल खवाये, अते फ़रक न करदा छायों।।
चंगा खावें ते चंगा पहनें, अते रब्ब दा नाम भुलायों।
आख ग्वाला मोयां जीउंदियां, तू केड़े कम आयों।।
प्रायः पेड़ अपने आप ही बिना लगाये उगते हैं। फिर इनमें यह विशेष गुण है कि पत्थर मारने पर भी वे फल देते हैं। अपनी छाया देने में भी वे भेदभाव नहीं रखते। वृक्षों से मनुष्य के सहरुाों काम भी होते हैं। फल, फूल, पत्ता, टहनी और तना सब कुछ मनुष्य के काम आता है। किसी ने तो यहां तक कहा है कि मनुष्य का जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वृक्षों से सम्बन्ध है। बालपन में झूला एवं खिलौने, यौवनावस्था में मेज़-कुर्सी आदि, बुढ़ापे में सहारे के लिये लाठी, जीवन भर खाना बनाने को र्इंधन, यहां तक कि मृत्यु के बाद अन्तिम संस्कार के लिये भी लकड़ियों की ही आवश्यकता पड़ती है। घरों में ठाठबाठ की अधिकतर वस्तुयें लकड़ी की ही बनती हैं। तात्पर्य यह कि वृक्षों से मनुष्य के सहरुाों काम संवरते हैं। सन्त ग्वालदास जी कहते हैं कि ऐ मनुष्य! तूने यदि अच्छा खाते-पीते एवं पहनते हुये भी मालिक के नाम को भुला दिया तो फिर तूने जीवित रहकर क्या किया? मरणोंपरान्त तो वैसे भी तेरा यह शरीर किसी काम नहीं आता। जीवन में भी यदि तूने भजन-बन्दगी न की तो समझ तूने अपना जीवन व्यर्थ कर दिया। अतः ऐ जिज्ञासु! अब भी समझ और वृक्ष की न्यार्इं दूसरों के काम आ

Thursday, June 9, 2016

वासर सुख नहीं रैन सुख, ना सुख धूप न छाँह।

वासर सुख नहीं रैन सुख, ना सुख धूप न छाँह।
कै सुख सरने राम के, कै सुख सन्तों माँह।।
अर्थः-ऐ मनुष्य! हरि की शरण में अथवा सन्त सत्पुरुषों की संगति में ही सच्चे सुख की आशा की जा सकती है नहीं तो जीव के मन में दिन हो या रात, धूप हो या छाया किसी दशा में भी पूर्ण शान्ति नहीं आ सकती। जीवन काल में इस उपरिलिखित दोनों की प्राप्ति का सफल प्रयत्न करना ही मनुष्य का "अपना काम' है। अन्यथा इस प्रपंच का तो यह स्वरुप भर्तृहरि-निति शतक में वर्णन करते हैः-

Monday, June 6, 2016

छाजन भोजन प्रीति सों, दीजै साधु बुलाय।

छाजन भोजन प्रीति सों, दीजै साधु बुलाय।
जीवत जस है जगत में, अन्त परम पद पाय।।
अर्थः-जो मनुष्य अत्यन्त प्रीति से विभोर होकर हर्षित ह्मदय से, बड़े चाव और निष्ठा से सन्त महात्माओं को अपने घर बुला कर रहने के लिये आवास और खाने के लिये परम श्रद्धा-भावनायुक्त परम प्रीति से सना हुआ सात्विक भोजन अर्पित करता है वह संसार में जीते जी यशस्वी कहलाता है। और मरणोपरान्त मोक्ष-पद को प्राप्त करता है।

Friday, June 3, 2016

ऐसो दुर्लभ जात शरीर।

ऐसो दुर्लभ जात शरीर। राम नाम भजु लागै तीर।
गये बेणु बलि गेहै कंस। दुर्योधन गये बूड़े बंस।।
पृत्थु गये पृथ्वी के राव। विक्रम गये रहे नहिं काव।।
छौं चकवै मंडली के झार। अजहूँ हो नर देखु विचार।।
गोपीचन्द भल कीन्हों योग। रावण मरिगो करतै भोग।।
जात देखु अस सबके जाम। कहैं कबीर भजु रामैं राम।।
अर्थः-ऐसा दुर्लभ एवं अनमोल मानुष शरीर हाथों से चला जा रहा है। यदि तू मालिक का भजन करे, तो तेरी नाव किनारे पर लगे। संसार की झूठी बड़ाई तथा मिथ्याभिमान किस काम का? जबकि बेणि, बलि और कंस जैसे महासम्राट भी संसार से मिट गये। दुर्योधन जैसे भी मृत्यु के मुख में चले गये और उनके वंश का नाम तक डूब गया।  समस्त भूमण्डल के एकाधिपति राजा पृथु भी न रहे और विक्रमादित्य भी शेष न रहे। ये छहों राजा जिनके नाम ऊपर आये हैं; कोई साधारण राजा नहीं थे, वरन् छत्रपति सम्राट थे। ऐ मनुष्य! अब भी तनिक विचार करके देख कि जब ऐसे ऐसे सृष्टि में होकर मिट गये, तो फिर स्वयं तू किस गिनती में है? परन्तु इनकी तुलना में राजा गोपीचन्द भी हुए हैं, जिन्होने संसार के भोगैश्वर्य तथा विलास-सामग्रियों में आसक्त न रहकर मालिक के भजन में मन लगाया, फलतः आज तक उनका नाम संसार में उज्ज्वल एवं अमर है। रावण भी तो कुछ कम सामथ्र्यवान और वैभवसम्पन्न नहीं था, किन्तु वह सांसारिक भोगों का मतवाला होकर मर मिटा। सृष्टि के रंगमञ्च से उसका नाम भी मिट गया। उसकी असत्य एवं अधर्म-प्रियता तथा उसके मिथ्याभिमान के कारण आज तक संसार उसके नाम से घृणा करता है और सब उसकी निंदा-भत्सर्ना करते हैं। ऐसे वैभव तथा ऐश्वर्य से लाभ भी क्या? श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि इसी प्रकार सबके शरीर नश्वर हैं और नष्ट होंगे ही। परन्तु यदि जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त करना है और मर कर भी अमर रहने की कामना है, तो मालिक के भजन मे मन लगाओ। मालिक का भजन ही केवल मनुष्य को उस अजर अमर पद की प्राप्ति करा सकता है। जहाँ काल अथवा मृत्यु की पहुँच नहीं।




Thursday, June 2, 2016

सपने होइ भिखारि नृपु, रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियं जोइ।।
अर्थः-एक राजा जो अपने भव्य राजभवन में बहुमुल्य मख़मली गद्दों पर रात्रि समय विश्राम करता है; वह स्वप्न में अपने आपको द्वार द्वार भिक्षाटन करने वाले भिखारी के रुप में देखता है और अत्यन्त दुःखी होता है। इसी प्रकार एक दीन-दरिद्र प्राणी स्वप्न में अपने को स्वर्ग के राजा इन्द्र के सिंहासन पर आसीन देखता है; तो वह अपने मन में अति प्रसन्न होता तथा अभिमान से फूल जाता है। परन्तु जब दोनों जागते हैं; तब राजा स्वयं को पूर्ववत् मख़मली गद्दे पर सोया हुआ पाता है और दरिद्र अपने को यथावत् द्वार द्वार का भिखारी पाता है। जाग्रत में न एक को कुछ लाभ हुआ, न दूसरे को कुछ हानि हुई। दोनों ही ज्यों के त्यों रहे। इसी प्रकार जगत के समस्त दृश्य भी स्वप्निल हैं तथा इनमें जो सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि उपजाने वाली घटनाएँ घटित एवं अनुभूत होती हैं। यह सब भी स्वप्नवत् मिथ्या और भ्रममूलक हैं। इनमें यथार्थ कुछ भी नहीं।