Sunday, July 31, 2016

मन जानत सब बात, जानत ही औगुन करै।

मन जानत सब बात, जानत ही औगुन करै।
काहे को कुसलात , हाथ दीप कूएँ परै।।

अर्थः-श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि मनुष्य का मन सभी बातों का जानकार है। वह भली प्रकार जानता है कि भलाई किसमें है और बुराई किसमें? कौन सा काम करने से लाभ होगा और किससे हानि होगी। किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि सब कुछ जानता समझता हुआ भी मानव मन बुराई औगुण स्वार्थ एवं विषय लोलुपता की ओर अधिक आकृष्ट रहता है। यह तो वही बात हुई जैसे कोई हाथ में दीपक लेकर कुएँ में जा गिरे। जहाँ ऐसी अवस्था हो, वहाँ कुशलता की आशा रखना व्यर्थ है।

Wednesday, July 27, 2016

कबीर संगति साध की, हरै और की ब्याधि।

कबीर संगति साध की, हरै और की ब्याधि।
संगति बुरी असाध की, आठौं पहर उपाधि।।
मूरख से क्या बोलियै , शठ से कहा बसाय।
पाहन में क्या मारियै, चोखा तीर नसाय।।
लहसन से चन्दन डरै, मत रे बिगारै बास।
निगुरा से सगुरा डरै, डरपै जग से दास।।
हरिजन सेती रूसना, संसारी से हेत।
ते नर कधी न नीपजै, ज्यों कालर का खेत।।
ऊँचे कुल कहा जनमिया, जो करनी ऊँच न होय।
कनक कलस मद से भरा, साधन निन्दा सोय।।


अर्थः-""श्री कबीर साहिब जी कथन करते हैं कि साधुओं की संगति दूसरों के दुःख और कष्ट को हर लेने वाली है। परन्तु असाधु-पुरुषों की संगति बुरी है; जिसमें रहकर आठों पहर उपाधि का सामना होता है।'' ""मूरख पुरुष से बोलने का क्या लाभ? और शठ (मूढ़) व्यक्ति पर किसी का क्या बस चल सकता है? पत्थर में तीर मारने से आखिर लाभ ही क्या है? कि उलटे तीर भी टूटकर रह जाता है।'' ""चन्दन लहसुन से डरता है कि कहीं उसकी संगति से चन्दन की सुगन्धि ही न बिगड़ जाये। इसी प्रकार ही निगुरे मनुष्य से गुरुमुख जीव डरते हैं कि उनकी संगति से कहीं बुरे संस्कार न अन्दर में प्रविष्ट हो जायें और मालिक का सच्चा दास इसी भान्ति संसारी मनुष्य की संगति से डरता है।'' ""मालिक के भक्तों से रुठे रहना और संसारी मनुष्यों से प्रेम करना-जिस मनुष्य का ऐसा स्वभाव हो; वह कभी भी फल फूल नहीं सकता, जैसे कि कालर भूमि में खेती उत्पन्न नहीं हो सकती।'' ""यदि मनुष्य की करनी ऊँचे दर्ज़े की नहीं है, तो फिर ऊँची कुल में जन्म लेने से लाभ ही क्या? क्योंकि सोने का कलश भी यदि शराब से भरा हुआ हो, तो साधु-पुरुषों ने उसकी भी निन्दा की है।''

Monday, July 25, 2016

कवणु सु अखरु कवण गुणु कवणु सु मणीआ मंतु।।

कवणु सु अखरु कवण गुणु कवणु सु मणीआ मंतु।।
कवणु से वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु।।
अर्थः-मैं कौन सी विद्या पढ़ूँ कौन सा गुण अपनाऊँ, कौन सी मणियों की माला पहनूँ तथा कौन सा मंत्र जपूं और कौन सा वेष धारण करुं, जिससे अपने मालिक को प्रसन्न कर सकूं और उसे अपना बना सकूं?

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहवा मणिआ मंतु।
ऐ त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु।।

अर्थः-दीनता और नम्रतापूर्वक रहने की विद्या पढ़, दूसरे की भूल को क्षमा कर देने का गुण अपना तथा मधुर और नम्र वचनों की माला पहन। जब आत्मा यह वेष धारण करेगी, तभी मालिक को प्राप्त करने में सफल होगी। दीनतापूर्वक रहना, क्षमा करना तथा मधुर वचन बोलना-ये तीनों ही एक प्रकार के वशीमंत्र हैं जिनको जीवन में अपनाने से मालिक तो क्या तीनों लोकों को वश में किया जा सकता है।

Thursday, July 21, 2016

जाकी गुरु में वासना सो पावै भगवान।

जाकी गुरु में वासना सो पावै भगवान।
सहजो चौथे पद बसै, गावत वेद पुरान।।
साध-संग की बासना, जेहि घट पूरी सोय।
मनुष-जन्म सतसंग मिलै, भक्ति परापत होय।।
अर्थः-""अन्त समय जिसकी सुरति गुरु के ध्यान में जुड़ जाती है। उसे परमेश्वर की प्राप्ति होती है। सहजो बाई जी कथन करती हैं ऐसा जीव चौेथे पद अर्थात् परमपद का अधिकारी बनता है। वेद और पुराण भी इसका समर्थन करते हैं।'' "" देह त्यागने के समय अगर ध्यान सत्संग और सन्तों के दर्शन की ओर चला जावे तो दूसरा जन्म उसे मनुष्य का मिलेगा जिसे पाकर वह भक्ति और सत्संग की ओर पग बढ़ावेगा।''

Tuesday, July 19, 2016

सूली ऊपर घर करै, विष का करै अहार।

सूली ऊपर घर करै, विष का करै अहार।
ता को काल कहा करै, जो आठ पहर हुशियार।।

परमसन्त श्री कबीर साहिब का कथन है कि जिस गुरुमुख ने भक्ति के कठिन मार्ग में पाँव रखा है और जो संसार की स्तुति-निन्दा, मानापमान आदिक को सहता है ( क्योंकि भक्तिमार्ग में जो मन-माया के साथ जूझना होता है, वह मानो सूली पर घर करना है; तथा जो संसार की भली-बुरी, गर्म-सर्द सहना है, यह मानो विष का भोजन है); जो गुरुमुख पुरुष इस प्रकार आठों पहर होशियार है, उसका भला काल क्या बिगाड़ सकता है?

Saturday, July 16, 2016

सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल सन्त।।

सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल सन्त।।
तैसे सीतल सन्त जगत की ताप बुझावैं।
जो कोइ आवै जरत मधुर मुख बचन सुनावैं।।
धीरज सील सुभाव छिपा ना जात बखानी।
कोमल अति मृदु बैन बज्र को करते पानी।।
रहन चलन मुसकान ज्ञान को सुगंध लगावै।
तीन ताप मिट जायें संत के दर्सन पावैं।।
पलटू ज्वाला उदर की रहै न मिटै तुरन्त।
सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल सन्त।।
अर्थः-जिस प्रकार चन्दन और चन्द्रमा शीतल होते हैं, उसी प्रकार सन्त भी स्वभाव से अति शीतल होते हैं। अपने शीतल स्वभाव से वे सांसारिक प्राणियों के तपते हुये ह्मदयों को शान्त शीतल करते हैं। जो कोई उनकी शरण में आता है, अपने मधुर वचनों द्वारा वे उसके ज्वलित ह्मदय को शान्त करते हैं। सन्तों में विद्यमान धैर्य एवं क्षमा तथा उनके शील स्वभाव का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। उनके कोमल, मृदुल वचनों से पत्थर ह्मदय मनुष्य भी पिघल जाता है और दानवता त्यागकर मानव बन जाता है। उनके मुखमंडल पर सदैव मधुर मुस्कान खेला करती है और वे सदैव ज्ञान की सुगन्ध चहुँ ओर फैलाया करते है। जो कोई भी उनके पवित्र दर्शन करता है, उसके तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं। सन्त पलटूदास जी कथन करते हैं कि जो प्राणी सन्तों की चरण शरण में आ जाता है, उसके अन्तर की ज्वाला अर्थात् अशान्ति तुरन्त मिट जाती है जिससे उसका ह्मदय शान्तमय हो जाता है।

Tuesday, July 12, 2016

मन गोरख मन गोबिंदा, मन ही औघड़ सोय।

मन गोरख मन गोबिंदा, मन ही औघड़ सोय।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय।।
मन मोटा मन पातला, मन पानी मन लाय।
मन के जैसी ऊपजै तैसी ही ह्वै जाय।।
मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोय।
एक रंग में जो रहै, ऐसा विरला कोय।।
अर्थः-""यह मन बड़ा कुशल अभिनेता है। यह गोरखनाथ भी बन सकता है और गोबिन्द भी। यही अवधूत भी बन जाता है और जो कोई मन को जतन से रखना सीख ले, तो वह मालिक से भी मिला देता है। यही मन स्थूल भी है और सूक्ष्म भी। यह आग भी है और पानी भी। मन में जैसी जैसी तरंगें पैदा होती हैं, वैसा ही रुप बन जाता है। यह मन क्षण क्षण में रंग बदलता रहता और इसके अनेक रुप हैं। परन्तु कोई विरला गुरु का सेवक ही गुरु के ध्यान में मन को लीन करके एक रस रह सकता है।''

Saturday, July 9, 2016

जितना हेत कुटुम्ब स्यौ, उतना गुरु सों होइ।

जितना हेत कुटुम्ब स्यौ, उतना गुरु सों होइ।
चला जाय बैकुण्ठ में, पल्ला न पकड़ै कोइ।।
अर्थः-सन्तों ने कहा है कि कुटुम्ब के साथ जितना नेह है, उतना ही यदि गुरु के पावन चरणों में जीव का हो जाये; तो अबाध गति से बैकुण्ठ में चला जा सकता है। सतगुरु के प्रेम का इतना बड़ा प्रताप  है।

Friday, July 8, 2016

अलि पतंग मृग मीन गज, जरत एक ही आँच।

अलि पतंग मृग मीन गज, जरत एक ही आँच।
"तुलसी' ताकी कौन गति, जाको लागे पांच।।
"तुलसी' ये तो पांच हैं, और भी होत पचास।
रघुवर जाकै रिदै बसे, ताको कौन त्रास।।
अर्थः-भंवरा, पतंगा, मृग, मछली और हाथी- ये सब एक-एक ही इन्द्रिय के स्वाद की आग में जल कर जीवन को नष्ट कर बैठते हैं। भंवरा सुगन्ध के लोभ में मारा जाता है, मृग मधुर संगीत का आखेट होता है, मछली को जिह्वा का स्वाद जाल में फंसा देता है, पतंग दीपक की सुन्दरता पर मोहित होकर प्राण गंवा बैठता है और हाथी विषय वासना के अधीन होकर ज़ंज़ीरों मे जकड़ा जाता है। सन्त तुलसीदास जी कथन करते हैं कि वह मनुष्य जो इन पांचों स्वादों के अधीन हो, उसकी क्या दशा होगी? परन्तु फिर कहते हैं कि सम्पूर्ण संसार की दशा एक समान नहीं। आम संसार निःसन्देह इन स्वादों का आखेट हो रहा है परन्तु भाग्यशाली गुरुमुख प्रेमी जो सन्त सद्गुरु की चरण शरण का सहारा ले लेते हैं, उनकी आज्ञा और मौज के अन्दर चलते हैं, तो उनके लिये सन्त तुलसीदास जी का फरमान है कि पांच तो क्या चीज़ हैं चाहे पचासों शत्रु भी एक साथ आक्रमण करें, तो भी उसका बाल तक बांका नहीं कर सकते जिसके सिर पर सद्गुरु धनी का हाथ हो।

Wednesday, July 6, 2016

फ़रीदा चारि गाँवाइया ङंढि कै, चारि गँवाइया संमि।

फ़रीदा चारि गाँवाइया ङंढि कै, चारि गँवाइया संमि।
लेखा रब्बु मंगेसिया, तूँ आयौं केरे कंमि।।
अर्थः-शेख फरीद साहिब का कथन है कि ऐ मनुष्य! तूने दिन के चार पहर तो सांसारिक धन्धों तथा इन्द्रियों की भोग वासनाओं की पूर्ति करने में गँवा दिये तथा रात्रि के चार पहर ग़फ़लत की नींद में सोकर नष्ट कर दिये। घड़ी भर के लिये कभी भूलकर भी मालिक की याद और भजन-सुमिरण तूने नहीं किया। परन्तु जब मृत्यु के उपरान्त मालिक के दर्बार में जा उपस्थित होगा। वहाँ मालिक तुझसे तेरे कर्मों का व्योरा माँगेगा तथा पूछेगा कि तू जगत मे किसलिये आया था और क्या कुछ करके आया है? तब क्या उत्तर देगा? भजन भक्ति की कमाई से हीन होने पर वहाँ तो घोर तिरस्कार एवं लज्जा का सामना होगा।

Monday, July 4, 2016

मिसरी मिसरी कीजिए, मुख मीठा नाहीं।

मिसरी मिसरी कीजिए, मुख मीठा नाहीं।
मीठा तब ही होइगा, छिट कावै माहीं।।
बातों ही पहुँचौ नहीं, घर दूरि पयाना।
मारग पन्थी उठि चलै, "दादू' सोह सयाना।।
भाव यह कि मिश्री-मिश्री करने से किसी का मुँह कभी मीठा हुआ है? ओ! मुँह तो तभी मीठा होगा जब उसमें मिश्री की डली डालोगे। चलने से तो डरे और दूर रहे केवल बातों से क्या कोई घर पहुँचा है? पथिक तो चतुर वही कहा जायेगा जिसने चुपचाप अपना मार्ग पकड़ लिया।

Friday, July 1, 2016

गुरु पग निस्चै परसिये, गुरु पग हिरदै राख।


सहजो गुरु पग ध्यान करि, गुरु बिन और न भाख।।
अर्थः- जिसको भी नित्य सुख और पूर्ण शान्ति की इच्छा हो वह दृढ़ विश्वास एवं अचल श्रद्धा के साथ श्री सद्गुरुदेव जी के चरणारविन्दों का स्पर्श करे। उन्हें अपने ह्मदय में धारण करे-आठों पहर अपने मन को उनके ध्यान में स्थिर करने का प्रयत्न करे और उनकी महिमा के बिना और किसी के गीत न गाये।