चौपाईः-काहू न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सबु भ्राता।।
योग-वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा।।
जन्म मरण यहाँ लगि जग जालू। सम्पत्ति विपति कर्म अरु कालू।।
धरणि धाम धन पुर परिवारु। स्वर्ग नरक जहाँ लग व्यवहारु।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। माया कृत परमार्थ नाहीं।।
दोहाः-सपने होय भिखारि नृप, रंक नाकपति होय।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जग जोय।।
अर्थः-लक्ष्मण जी मीठी,कोमल,ज्ञान वैराग्य तथा भक्ति से भरपूर वाणी से बोले-ऐ निषादराज! संसार में न कोई किसी को सुख पहुँचा सकता है, न दुःख। हे भाई! सुख दुःख जीव को अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। योग अर्थात् मिलाप वियोग अर्थात् बिछोड़ा। भले तथा बुरे कर्मों का भोगना, मित्र-शत्रु तथा मध्यम अर्थात् निष्पक्ष आदि सब भ्रम का जाल है। इसके अतिरिक्त जन्म-मरण, जहां तक इस संसार का पसारा है-सम्पत्ति-विपत्ति-कर्म और काल-पृथ्वी घर-नगर-कुटम्ब,स्वर्ग व नरक एवं जो कुछ भी संसार में देखने सुनने और विचारने में आता है, यह सब माया का पसारा है। इसमें परमार्थ नाम मात्र भी नहीं है। जैसे सपने में राजा भिखारी होवे और कंगाल इन्द्र हो जावे परन्तु जागने पर लाभ या हानि कुछ नहीं-वैसे ही जगत् का प्रपंच स्वप्न के समान मिथ्या है। जागने पर पता लगता है कि न कोई लाभ हुआ है और न कोई हानि हुई है। यह तो सब माया का खेल था, यथार्थ कुछ भी नहीं था।
योग-वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा।।
जन्म मरण यहाँ लगि जग जालू। सम्पत्ति विपति कर्म अरु कालू।।
धरणि धाम धन पुर परिवारु। स्वर्ग नरक जहाँ लग व्यवहारु।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। माया कृत परमार्थ नाहीं।।
दोहाः-सपने होय भिखारि नृप, रंक नाकपति होय।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जग जोय।।
अर्थः-लक्ष्मण जी मीठी,कोमल,ज्ञान वैराग्य तथा भक्ति से भरपूर वाणी से बोले-ऐ निषादराज! संसार में न कोई किसी को सुख पहुँचा सकता है, न दुःख। हे भाई! सुख दुःख जीव को अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। योग अर्थात् मिलाप वियोग अर्थात् बिछोड़ा। भले तथा बुरे कर्मों का भोगना, मित्र-शत्रु तथा मध्यम अर्थात् निष्पक्ष आदि सब भ्रम का जाल है। इसके अतिरिक्त जन्म-मरण, जहां तक इस संसार का पसारा है-सम्पत्ति-विपत्ति-कर्म और काल-पृथ्वी घर-नगर-कुटम्ब,स्वर्ग व नरक एवं जो कुछ भी संसार में देखने सुनने और विचारने में आता है, यह सब माया का पसारा है। इसमें परमार्थ नाम मात्र भी नहीं है। जैसे सपने में राजा भिखारी होवे और कंगाल इन्द्र हो जावे परन्तु जागने पर लाभ या हानि कुछ नहीं-वैसे ही जगत् का प्रपंच स्वप्न के समान मिथ्या है। जागने पर पता लगता है कि न कोई लाभ हुआ है और न कोई हानि हुई है। यह तो सब माया का खेल था, यथार्थ कुछ भी नहीं था।
सुन्दर । शुभकामनाएं ।
ReplyDeletesuvichar
ReplyDeleteअति सुन्दर प्रस्तुती।
ReplyDeleteIska Doha no. Kitna hai
ReplyDeleteअयोध्या काण्ड दोहा नंबर 92
DeleteGalat hai bhai ji
DeleteSahi post karo
Sahab
दोहा 91
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयाह चौपाई अयोध्या कांड के दोहा नंबर 91 में सम्मिलित है चौपाई नंबर दो हैं बोले लखन मधुर मृदु बानी ज्ञान विराग भगत सानी कहां हो ना कोई सुख दुख कर दाता निज कृत कर्म भोग सब भ्राता
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर बात कही गोस्वामी जी ने
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है जी पढ़कर मन की उदासीनता कम हो जाती है आशा है आप लिखते रहेंगे प्रभु कृपा से हम पढ़ते रहे जय श्री राम जय जय राम
ReplyDeleteश्री SEETARAM
ReplyDeletePAAHIMAAM 🚩
Exactly...👌
ReplyDeleteJaya siyaram
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