Wednesday, September 28, 2016

मोर तोर की जेवरी, बटि बाँधा संसार।

मोर तोर की जेवरी, बटि बाँधा संसार।
दास कबीरा क्यों बँधै, जाके नाम आधार।।
मैं मैं बुरी बलाय है, सको तो निकसो भागि।
कहैं कबीर कब लगि रहै, रुई लपेटी आगि।।
अर्थः-""श्री कबीर साहिब उपदेश करते हैं कि स्वयं ही मेरे तेरे पने की एक सुदृढ़ रस्सी बट कर यह जगत उसमें बँध रहा है। परन्तु मालिक के सच्चे दास इस बन्धन में कभी नहीं बँधते, क्योंकि उन्होंने ममता अहंता को त्यागकर मालिक के नाम का आधार जो ले रखा है।'' "" मैं मैं अर्थात् ममता बहुत बुरी बला है। जहाँ तक सम्भव हो, इसके फन्दे से निकल भागने का यत्न करो। यदि अपनी सुरक्षा अभीष्ट है, तो इस ममता का परित्याग करना ही होगा। रुई में लिपटी आग भला कब तक रह सकेगी? अन्ततः रुई को जला कर ही मानेगी। इसी प्रकार मैं-मेरी के विचारों की अग्नि भी अन्त में मनुष्य की भक्ति प्रेम की भावनाओं को नष्ट भ्रष्ट करके उसी लुटिया ही डुबो देगी।''

Friday, September 23, 2016

सुत दारा और लच्छमी,

सुत दारा और लच्छमी, हर काहू के  होय।
सन्त समागम हरि कथा, तुलसी दुर्लभ दोय।।
अर्थः- इस जगत में स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्ति प्रभुति तो हर किसी के पास अपनी अपनी प्रारब्ध अनुसार होते ही हैं। इनका होना कोई बड़ी बात नहीं। ये कुछ ऐसी दुर्लभ विभूतियाँ नहीं, जिनकी कामना की जाये। जगत में बहुमूल्य एवं दुर्लभ विभूतियाँ तो केवल दो ही हैं, जिन्हें प्राप्त कर मनुष्य का जीवन धन्य और जन्म सफल हो जाता है तथा जिनकी आकांक्षा सदैव करनी ही चाहिये। वे हैं सत्पुरुषों का सत्संग और मालिक का भजन। जो इनकी कामना करता है, वही बुद्धिमान है।

Sunday, September 18, 2016

भवजल अगम अथाह

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।
सतगुरु केवट मिलै, पार घर अपना जाना।।
जग रचना जंजाल, जीव माया ने घेरा।
तलुसी लोभ मोह बस परै, करैं चौरासी फेरा।।
इन्द्री रस सुख स्वाद, बाद ले जनम बिगारा।
जिभ्या रस बस काज, पेट भया विष्ठा सारा।
टुक जीवन के काज, लाज नहिं मन में आवै।
तुलसी काल खड़ा सिर ऊपर, घड़ी घड़ियाल बजावै।।

अर्थः-""यह संसार एक सागर है। इसकी थाह पाना जीवट का काम है। कोई विरला साहसी पुरुष ही इसमें कूदकर इससे पार होने की प्रबल चेष्टा करता है। तिस पर भी अपने बल पर भला कौन पार हो सका है। जब तक सतगुरु मल्लाह को अपने जीवन की नैय्या न सौंप दी जाये, पार हो सकना असम्भव।'' ""इस अटपटे संसार की रचना को समझ लेना आसान नहीं। लोभ और मोह यहाँ ऐसे मदमत्त गजराज हैं कि जीव को अपने पाँव तले मसलकर रख देते हैं। जिस आवागमन के चक्र से छूटने के लिये जीव मानव देह में आया था, ये बरबस ही उस ऊँचाई से खींचकर नीचे गिरा देते हैं और जीव फिर उसी चौरासी के चक्र में जा पड़ता है।'' ""इन्द्रियों के रसों के स्वाद में पड़कर जीव ने अपना सारा जीवन अकारथ गँवा दिया। संसार के भाँति भाँति के स्वादिष्ट पदार्थों का रस लेने को जीभ लपलपाती है; मगर खाने के बाद वे सब पेट में गन्दगी बन जाते हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये कुछ भी जतन नहीं किया, इतने पर भी जीव को लाज नहीं आती। तुलसी साहिब का कथन है कि काल सिर पर खड़ा हर समय कूच का नक्कारा बजा रहा है और सचेत कर रहा है कि इस रहे सहे समय में अपना काम बना ले। परन्तु इन्द्रियों के रसों में गाफिल इनसान सुनता कहाँ है?''

Wednesday, September 14, 2016

जेहि सुख को खोजत फिरै,

जेहि सुख को खोजत फिरै, भटकि भटकि भ्रम माहिं।।
भूला जीव न जानई, सुख गुरु चरणन आहि।।
अर्थः-जिस सच्चे सुख की खोज और तलाश में यह जीव भटक भटक कर अनन्त काल से धोखे और भरम के फेर में पड़ा हुआ है, उसको यह भूला जीव खुद नहीं जान सकता, जबकि वह सच्चा सुख, सच्ची खुशी और सच्ची शान्ति पूर्ण सतगुरु के चरणों में है।

Sunday, September 11, 2016

कबीर मन तीखा किया लाइ बिरह खरसान।

कबीर मन तीखा किया लाइ बिरह खरसान।
चित चरनों से चिपटिया, का करै काल का बान।।
अर्थः-बिरह और प्रेमाभक्ति एक प्रकार की खरसान है। जब मन को इस खरसान पर लगाया जाता है; तो उसकी सब मलिनता, अपवित्रता, सुस्ती और कमज़ोरी दूर होती है। तथा इन दुर्गुणों के बदले उसमें सच्चाई, भक्ति प्रेम और परमार्थ का बल भर जाता है। तब यही मन मनुष्य को आत्मोन्नति के शिखर की ओर ले जाने का साधन बन जाता है। भक्ति-बल पाकर मन प्रतिक्षण मालिक से मिलने की तड़प में व्याकुल रहता है। मानो प्रतिपल मालिक के चरणों से चिमटा हुआ है। क्योंकि जिस मन में सच्ची तड़प और लगन है, उसे सदा मालिक से मिला और जुड़ा हुआ ही जानना चाहिये। तथा जब मन मालिक से मिला रहेगा। तो काल का बाण उसका क्या बिगाड़ सकता है?

Sunday, September 4, 2016

कबीर मन परबत हुआ

कबीर मन  परबत हुआ, अब मैं पाया जानि।
टाँकी लागी सबद की, निकसी कंचन खानि।।
पहले यह मन काग था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुगि चुगि खात।।
मन मनसा को मारि करि नन्हा करि के पीस।
तब सुख पावै सुन्दरी, पदुम झलक्कै सीस।।
मनहीं को परमोधिये, मन हीं को उपदेस।
जो यहि मन को बसि करै, सिष्य होय सब देस।।
अर्थः-""श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि मुझे अब यह ज्ञात हुआ कि मन तो पर्वत के समान कठोर था। परन्तु जब इस पर गुरु शब्द की टाँकी से चोट लगाई गई, तो मन की चट्टान में से भक्ति परमार्थ रुपी सोने की खान निकल आई।'' ""पहले यह मन कौव्वे के समान स्वभाव वाला था अर्थात् विषय भोगों के मलिन आहार का मतवाला होकर आत्मा का घात कर रहा था। परन्तु अब तो गुरुकृपा से यह मन हंस का रुप बन गया है और परमार्थ के मोती चुन चुन कर खाता है।'' ""ऐ जीव! मन के समस्त नीच विकारों तथा वासनाओं को मार कर और बारीक करके पीस डाल। जैसे संखिया को भस्म करके पीस दिया जाता है और वह अमूल्य औषध बन जाता है।  इसी प्रकार मन को बारीक करके पीसने का अर्थ है मनोविकारों में सुधार करना। जब मन का सुधार हो जाए; तब यह अन्तर्मुख होकर परमार्थी मन बन जावेगा तथा आत्मा रुपी सुन्दरी को अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। वह मन की खटपट से मुक्त होकर सुखी होगी तथा उसके सिर पर सौभाग्य का कमल खिलकर जगमगाने लगेगा।'' ""मन ही को समझाने और उपदेश करने की आवश्यकता है मन ही को सुधारकर और साधकर आज्ञाकारी बनाना आवश्यक है। जो कोई इस मन को अपने वश में कर लेता है, तो समस्त संसार ही उसका शिष्य बनने को तत्पर हो जाता है।

Thursday, September 1, 2016

कथा कीरतन कलि विषै

कथा कीरतन कलि विषै, भव सागर की नाव।
कबीर जग के तरन को, नाहीं और उपाव।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब के विचारानुसार इस घोर कलिकाल में जब कि चहुँ ओर दूषित वातावरण दृष्टिगोचर होता है तथा तपस्यादि कठिन साधनों का आश्रय ग्रहण करना असम्भवप्राय प्रतीत होता है; भवसागर से तरने के लिये कथा-कीर्तन ही वह सुदृढ़ नौका है, जो जीवात्मा को पार पहुँचा सकती है। इसे छोड़कर कोई अन्य उपाय अथवा साधन नहीं दिखायी देता, जिसके आधार संसारी प्राणी भव-पार हो सकें।