Monday, February 29, 2016

भक्तिवन्त तैसे झुके....

फल से तरु नीचे झुके, जलधर भी झुक जाहिं।
भक्तिवन्त तैसे झुके, भक्ति सम्पदा पाहिं।।

अर्थः-वृक्ष पर जब फल लगते हैं तो जितने ही अधिक फल लगते हैं, उसकी शाखायें उतनी ही अधिक झुक जाती हैं। ऐसे ही जल से भरे हुये मेघ भी धरती की ओर झुकते हैं। ठीक इसी प्रकार जो भक्ति मान पुरुष होता है, वह भक्ति की सम्पदा प्राप्त करके झुक जाता है अर्थात् विनम्र बन जाता है।

Sunday, February 28, 2016

हंसा बगुला एक सा

हंसा बगुला एक सा, मानसरोवर माहिं।
बग ढिंढोरै माछरी, हंसा मोती खाहिं।।
जा माया भक्तन तजी, ताहि चहै संसार।
भक्तन भक्ति प्यारी है, और न चित्त विचार।।

अर्थः-""हंस और बगुला दोनों मानसरोवर में रहते हैं, परन्तु हंस तो अपने स्वभाव के कारण मोती का आहार करते हैं जबकि बगुले मछली ढूँढते हैं। भाव यह कि भक्तजन और आम संसारी मनुष्य संसार में ही रहते हैं, परन्तु भक्त जन हंस की न्यार्इं भक्ति के मोती चुगते हैं जबकि आम संसारी मनुष्य माया रुपी मछली की प्राप्ति के यत्न में ही लगे रहते हैं।'' ""जिस माया को भक्तजन अति तुच्छ समझकर त्याग देते हैं, संसारी लोग उसी माया की कामना करते हैं। भक्तों को तो केवल मालिक की भक्ति ही प्रिय है। इसके अतिरिक्त उनके मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं।''

Saturday, February 27, 2016

करनी-कथनी

करनी बिन कथनी इती, ज्यों ससि बिन रजनी।
बिन साहस जिमि सूरमा, भूषण बिन सजनी।।
बाँझ झुलावे पालना, बालक नहीं माहीं।
वस्तु विहीना जानिये, जहँ करनी नाहीं।।
बहु डिम्भी करनी बिना,कथि कथि करि मूए।
सन्तों कथि करनी करी,हरि के सम हूए।। श्री चरण दास जी।

अर्थः-बिना करनी के कथनी ऐसी है जैसे बिना चन्द्रमा के रात या साहस के बिना शूरवीर,नारी के बिना गहना। आचरण के बिना भाषण करते रहना तो ऐसा है जैसे कोई बाँझ स्त्री पालने मे कल्पित बालक को झुलाया करती हो। जहाँ करनी ही नहीं वहां अभीष्ट वस्तु कहां से आयेगी? कितने ही दम्भी अर्थात् केवल दिखावा करने वाले लोग करनी के बिना आत्म ज्ञान की कोरी चर्चा करते करते प्रयाण कर गये-परन्तु सन्त सत्पुरुषों का आदेश है कि जो कुछ कहो उसके अनुसार आचरण भी करो। जिन्होने भी ऐसा किया वे ब्राहृ रुप ही हो गये।

Saturday, February 20, 2016

मन अच्छा बुरा सब जानता है..

मन जानत सब बात, जानत ही औगुन करै।
काहे को कुसलात , हाथ दीप कूएँ परै।।

अर्थः-श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि मनुष्य का मन सभी बातों का जानकार है। वह भली प्रकार जानता है कि भलाई किसमें है और बुराई किसमें? कौन सा काम करने से लाभ होगा और किससे हानि होगी। किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि सब कुछ जानता समझता हुआ भी मानव मन बुराई औगुण स्वार्थ एवं विषय लोलुपता की ओर अधिक आकृष्ट रहता है। यह तो वही बात हुई जैसे कोई हाथ में दीपक लेकर कुएँ में जा गिरे। जहाँ ऐसी अवस्था हो, वहाँ कुशलता की आशा रखना व्यर्थ है।

Friday, February 19, 2016

बहुत जनम बिछुड़े थे माधो!

बहुत जनम बिछुड़े थे माधो! एह जनम तुम्हारे लेखै।
कहैं रैदास आस लगि जीवाँ चिर भयौ दरसन पेखै।।

अर्थः-सन्त रैदास जी का कहना है हे प्रभो! मैं बहुत जन्म तक आपसे बिछुड़ा रहा और अपना प्रत्येक जन्म माया की खातिर बलिदान करता रहा। अब मेरा यह जन्म आपकी खातिर बलिदान हो, तो मेरा काम बने। ऐ मालिक! मैं आपके ही आश्रय जीवित हूँ तथा चिरकाल से आपके दर्शन की झाँकी से वञ्चित हूँ। अब यदि जीवन बलिदान करके भी आपका दर्शन उपलब्ध हो तो मेरे परम सौभाग्य।

Thursday, February 18, 2016

बिरले जल जग ऊबरै

या माया की चोट, सुर नर मुनि नहिं निस्तरै।
ले सतगुरु की ओट बिरले जन जग ऊबरै।।

अर्थः-सत्पुरुष कथन करते हैं माया की शक्ति इतनी प्रबल है कि इसकी चोट से देवता, मुनि और मानव कोई नहीं बच सका। इस प्रबल शक्ति ने समस्त संसार को अपनी लपेट में ले रखा है। इसका विस्तार लम्बा चौड़ा है और इसके प्रहार अत्यन्त गुप्त होते हैं। साधारणतया इस माया के प्रहारों से बच सकना अत्यन्त दुष्कर है। किन्तु  विरले ही ऐसे जीव संसार में होते हैं, जो सन्त सतगुरु की ओट लेकर माया के दाँव पेच से साफ बचकर निकल जाते हैं।

Wednesday, February 17, 2016

अभिमानी चढ़ि कर गिरे

अभिमानी चढ़ि कर गिरे, गये वासना माहिं।
चौरासी भरमत भये, कबहीं निकसैं नाहिं।।

अर्थः-रुप, विद्या, बल, तप कुल आदि के अभिमान में डूबे हुए पुरुष यदि कहीं ऊँची पदवी भाग्यवश पा भी जायें-तो भी उन्हें भाग्यवान न जानना। वे अभी वासनाओं के जाल में फँसे पड़े हैं। चौरासी लाख योनियाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। वे अभागे जीव नरकों के कुण्डों में अभी डुबकियाँ खाएँगे उन्हें छुड़ाने भी कोई नहीं जायेगा। दया निधान सन्त यदि उनके कल्याण के लिये जाएँ भी तो भी वे उन्हें "न' कह देंगे। ऐसा उदण्ड होता है यह अभिमान। यह किसी के घट में पाँव जमा ले सही फिर जब तक उस जन का सर्वनाश न कर ले उसे कल नहीं पड़ती।

Tuesday, February 16, 2016

आँसू टपकै नैंन।

गद गद बानी कंठ में, आँसू टपकै नैंन।
वह तो बिरहिन राम की, तलफत है दिन रैन।।
प्रेम बराबर जोग ना, प्रेम बराबर ज्ञान।
प्रेम भक्ति बिन साधिबो, सबही थोथा ध्यान।।

अर्थः-""सन्त चरनदास जी का कथन है कि जब गला रुँधा हो, वाणी पर नियन्त्रण न रहे तथा इसके साथ ही नेत्रों से छम छम अश्रु बहते हों: तो कहना चाहिए कि आत्मा प्रभु दर्शन के लिये व्याकुल है तथा दिन रात प्रभु प्रियतम के बिरह में तड़प रही है।'' ""पुनः कहते हैं कि प्रेम के समान न योग है, न तप साधन, न ही ज्ञान। अन्य शब्दों में यह कि प्रेम ही सच्चा योग है, यही सच्चा तप है तथा सच्चा ज्ञान भी प्रेम ही है। ऐ साधो! प्रेमाभक्ति के बिना सब ज्ञान ध्यान थोथा और खोखला है।

Monday, February 15, 2016

कागा का कछु लेत है, कोयल का कछु देत।
मीठी वाणी बोल करि, सब का मन हरि लेत।।

अर्थः-कौव्वा भला किसी से क्या छीनता है, जोकि सब लोग उसके प्रति अरुचि दिखाते हैं। और कोयल भला किसी को कौनसा मूल्यवान पदार्थ देती है कि वह सबके मन को भाती है। इस अन्तर का कारण केवल इतना ही है कि कौव्वे की बोली परुष एवं अप्रिय होती है और सभी उसके प्रति अरुचि दर्शाते हैं, जबकि उसकी तुलना में कोयल मधुर वचन कहकर (मीठी बोली बोलकर) सबके मन को मोहित कर लेती है। एक सच्चे भक्त और जिज्ञासु पुरुष का ह्मदय भी सदैव सबके प्रति प्रेम-प्यार और स्नेह से पूर्ण होता है। मधुर भाषण से अन्यों के ह्मदयों को जीत लेता है।

Sunday, February 14, 2016

प्रेमा-भक्ति

रैदास तू काँवच फली, तोहि न छूये कोय।
तैं निज नाम न जानिया, भला कहाँ से होय।।
जा देखैै घिन ऊपजै, नरक-कुण्ड में बास।
प्रेम भक्ति से ऊद्धरै परगट जन रैदास।।

अर्थः-सन्त रैदास जी का जन्म नीच जाति में हुआ था, इसे सब जानते हैं । वे फरमातें हैं, ऐ रैदास! तू काँवच की फली की तरह है, जिसको कोई छूता तक नहीं। (काँवच फली एक जंगली बूटी है, जिस पर देखने में सुन्दर मगर खाने में ज़हरीली फलियाँ लगती हैं। उन्हें खाना तो एक तरफ, उसे कोई छू लेता है उस पर भी ज़हर चढ़ जाता है। इसलिये लोग अधिकतर उसे छूने से परहेज़ करते हैं। दूसरा इशारा यह भी है कि अछूत जाति को छूने से भी कर्मकाण्डी लोग उसी तरह परहेज़ करते हैं जैसे कि ज़हर से) जब तूने निज नाम को नहीं जाना है, तो फिर भला भी किस तरह से हो सकता है? अर्थात् नाम के बिना भलाई और गुण कैसा? फिर फरमाते हैं कि जिस नीच को देखने तक से लोगों को घृणा उत्पन्न होती है और जिसका सदैव गंदगी और नरक में निवास रहता है; उसी नीच जाति का प्राणी प्रेमाभक्ति को पाकर पवित्र तथा पूजनीय बन जाता है। यह बात रैदास जी की मिसाल से प्रगट है।

Saturday, February 13, 2016

नाम प्रताप

देखौ नाम प्रताप से सिला तिरै जल बीच।।
सिला तिरै जल बीच सेतु में कटक उतारी। नामहिं के परताप बानरन लंका जारी।।
नामहिं के परताप ज़हर मीरा ने खाई। नामहिं के परताप बालक प्रहलाद बचाई।।
पलटू हरिजस ना सुनै ता को कहियै नीच। देखौ नाम प्रताप से सिला तिरै जल बीच।।

अर्थः-देखो तो सही कि मालिक के नाम के प्रताप से पत्थर जल में तैरते हैं। नाम की ही शक्ति ने पत्थरों को जल में तैराकर पुल पर से बानर सेना को पार उतार दिया। नाम के बल से ही एक बानर (हनुमान जी) ने लंका जैसी सुदृढ़ नगरी को जलाकर भस्म कर दिया। जो अति बलवान राजा रावण की राजधानी थी तथा जहाँ प्रतिपल हज़ारों राक्षसों का पहरा रहता था। नाम ही का यह प्रताप था कि मीराबाई ने हँसते हँसते विष से भरा प्याला होंठों से लगा लिया और उसका कुछ भी न बिगड़ा। जब बालक प्रहलाद को उसके दुष्ट पिता हिरण्यकश्यप ने मार डालने का निश्चय कर लिया था तब नाम के आधार ने ही प्रह्लाद जी की प्राण रक्षा की। इसलिये श्री पलटू साहिब जी का कथन है कि जो मालिक के नाम की महिमा को नहीं सुनता उसे नीच कहना ही उचित है। क्योंकि नाम के प्रताप से ही पत्थर तक जल में तैर जाते हैं।

Friday, February 12, 2016

हंस रूप कोई साध है

हंसा पय को काढ़ि लै, छीर नीर निरवार।
                ऐसे गहै जो सार को, सो जन उतरै पार।।
                     छीर रुप सतनाम है, नीर रुप व्यवहार।
                     हंस रुप कोई साध है, तत का छाननहार।।

हंस की चोंच में यह शक्ति होती है कि दूध और पानी को पृथक्-पृथक् कर देती है और हंस दूध का सेवन करके पानी को छोड़ देता है अर्थात् सार वस्तु को ग्रहण करके असार वस्तु का त्याग कर देता है। इसी प्रकार विचारवान गुरुमुख सत्संगी पुरुष भी इस मिले-जुले संसार में से सार वस्तु को ग्रहण करके असार वस्तु को त्याग देता है, परिणामस्वरुप वह सुगमता से इस भवसागर को पार कर लेता है। परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि वह सार वस्तु अथवा दूध मालिक का नाम है और असार वस्तु अथवा नीर माया-काया का व्यवहार है। सन्त सद्गरु के प्यारे गुरुमुखजन संसार में रहते हुये भी हंस के समान सार वस्तु मालिक की भजन भक्ति को ही ग्रहण करते हैं।

Thursday, February 11, 2016

प्रेमी के मैं कर बिकूं.

प्रेमी के तो कर बिकूँ, यह तो मेरा असूल।
चार मुक्ति दूँ ब्याज में, देय सकहुं नहिं मूल।।

अर्थः-भक्त वत्सल भगवान कितना आश्वासन देते हैं अपने प्रेमी को-वे कहते हैं कि मैं प्रेमी के हाथ में तो बिका ही रहता हूँ।-काश कि वह मुझसे अन्तस्तल से घना घना अनन्य प्यार कर ले। उस प्रेम के बदले में मैं क्या करता हूँ चारों प्रकार की मुक्तियाँ (सायुज्य,सामीप्य, सालोक्य और सारुप्य) तो डार देता हूँ उसकी झोली में-यह तो होता है उस प्रेम रुपी मूल धन का ब्याज-मूल पूँजी तो मैं कभी उसे लौटा सकता ही नहीं।

Wednesday, February 10, 2016

भक्ति गेंद चौगान की

भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोई ले जाय।
कह कबीर कछु भेद नहिं, कहा रंक कहा राय।।


अर्थः- भक्ति तो चौगान की गेंद है। इसे जो भी चाहे ले जा सकता है। इस खेल में धनी और निर्धन का भेद नहीं किया जाता। चौगान एक खेल है इसमें खिलाड़ी घोड़े पर बैठे हुए एक लम्बी छड़ी से मैदान में पड़ी हुई गेंद को लक्ष्य स्थान पर ले जाते हैं। परम सन्त श्री कबीर साहिब जी भक्ति की उपमा चौगान की गेंद से देते हैं अर्थात योग-ज्ञान-तप-यज्ञ आदि के द्वारा जैसी भी साधना परमात्मा को प्राप्त करने के लिये की जाय सब सुन्दर है परन्तु भक्ति तो एक गेंद है। यह खुले मैदान में पड़ी है। कोई भी इसे उठाकर परमेश्वर तक पहुँचा दे-जो भगवान के साथ भक्ति की गेंद खेलेगा वह कितना ही भाग्यशाली होगा।

Tuesday, February 9, 2016

जेहि घट प्रेम न संचरै...

जेहि घट प्रेम न सँचरै, सो घट जानि मसान।।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान।।

अर्थः-जिस मनुष्य के ह्मदय में प्रेम की लगन नहीं है, उसका ह्मदय श्मशान के सदृश सूना है और वह स्वयं जीते जी मृतक समान है। जिस प्रकार लोहार की धोंकनी निर्जीव खाल होने पर भी साँस लेती है। वैसे ही प्रेम से हीन मनुष्य भी देखने में निस्सन्देह साँस लेता, चलता फिरता और काम काज करता दिखायी देता है; किन्तु यथार्थतः वह मृतक ही है।

Monday, February 8, 2016

गुरु मिला तब जानियै

गुरु मिला तब जानियै, मिटै मोह सन्ताप।
हर्ष शोक दाझै नहीं, तब गुरु आपहिं आप।।

अर्थः-श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि पूर्ण परमार्थी गुरु के मिलने का फल यही है कि सेवक अथवा शिष्य के चित से माया मोह के समस्त विकल्प सर्वथा नष्ट हो जावें, जोकि पाप-ताप-सन्ताप को उत्पन्न करने वाले हैं। मोहजनित विकल्प दूर हो गये, तो उनसे उत्पन्न होने वाले ताप सन्ताप और क्लेश भी स्वतः नष्ट हो गये। तब ऐसे सेवक के चित को हर्ष-शोक, सुख-दुःखादि द्वन्द्व विचलित नहीं कर सकते। तथा जब मन की पवित्रता और शुद्धि की ऐसी अवस्था को हस्तगत कर लिया गया; तब उसके परिशुद्ध ह्मदय के स्वच्छ दर्पण में सच्चे गुरु का ही प्रतिबिम्ब दिखायी देने लगता है। अर्थात् शिष्य सेवक का अहं-अभिमान विगलित होकर वहाँ केवल गुरु ही गुरु शेष रह जाता है

Sunday, February 7, 2016

मन पंछी

मन पंछी तब लगि उड़ै, विषय वासना माहिं।
प्रेम बाज़ की झपट में, जब लगि आयौ नाहिं।।


अर्थः-जिस प्रकार दाना चुगने वाला पक्षी दाने की तलाश में चहुँओर उड़ता और घूमता फिरता है; वैसे ही मनुष्य का मन भी विषय रसों को प्राप्त करने तथा अन्यान्य अनेक इच्छाओं की पूर्ति हेतु यत्र-तत्र भटकता रहता है। परन्तु वह तभी तक भटकता है, जब तक कि प्रेम रुपी बाज़ कि झपट में नहीं आया। तथा जब प्रेम रुपी बाज़ ने मन पंछी को झपटकर दबोच लिया, तो फिर भटकने भटकाने वाला ही कहाँ शेष रहा?

Friday, February 5, 2016

जीव एक है और दुश्मन पांच...

कबीर बैरी सबल हैं, एक जीव रिपु पाँच।
अपने अपने स्वाद को, बहुत नचावैं नाँच।।

अर्थः-भक्ति मार्ग में पग रखने वाले जीव के मार्ग में बाधायें डालने वाले शत्रु बलवान और शक्तिशाली हैं। एक ओर अकेला जीव है और दूसरी ओर उसके विरुद्ध पांच (काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार) शक्तिशाली शत्रु हैं। ये पांचों ही बड़े क्रूर हैं और जो जीव इनके पंजे में आ जाता है उसे ये पांचो ही अपने अपने स्वार्थ के लिये भांति-भांति के नाच नचाते हैं। इसलिये जीव को भक्ति-मार्ग में बहुत ही संभल कर और इन शत्रुओं से बच कर चलना होगा।

बादशाहों का नामो निशां मिटा...

क्या क्या न बादशाहों का नामो-निशाँ मिटा। हर एक अपने वक्त का नौशीरवाँ मिटा।।
मौसम गया बहार का, रंगं-खिज़ाँ मिटा। जो फूल इस चमन में खिला बेगुमाँ मिटा।।
दरपेश सब के वासते मंज़िल अजीब है। ग़ाफ़िल ब होश बाश, अजल अनकरीब है।।

अर्थः-कैसे कैसे महान चक्रवर्ती सम्राटों का नाम निशान जगत से मिट गया। अपने समय का प्रत्येक नौशीरवां और विक्रमादित्य जैसा पराक्रमी होकर भी अन्ततः नष्ट हो गया। बसन्तऋतु की बहार कुछ दिनों तक अपनी ध्वजा फहराती रही, फिर वह भी मिट गयी और उसका स्थान पतझड़ ने ले लिया। पतझड़ का रंग भी चार दिन से अधिक न टिक सका। इस परिवर्तनशील संसार में किसी को भी स्थायित्व प्राप्त नहीं है। जगत के उपवन में जो भी पुष्प खिला, वह निस्सन्देह एक दिन विनाश की भेंट चढ़ गया। क्योंकि प्रकृति के अटल नियमानुसार सब के लिये एक विचित्र गन्तव्य स्थान की ओर जाना निश्चित है। इसलिये ऐ ग़ाफ़िल मनुष्य! सचेत हो कि मृत्यु सिर पर खड़ी है तथा वह क्षण क्षण तुझसे निकटतर होती जा रही है। क्या खबर कब आकर तुझे दबोच लेगी।

Thursday, February 4, 2016

सतगुरु मिलै तो पाइयै,भक्ति मुक्ति भण्डार।
दादू सहजै देखिये, साहिब का दीदार।।

अर्थः-""जिस जिज्ञासु को अपने मालिक के दर्शनों की अभिलाषा है तो वह पहले सन्त सद्गुरुदेव जी से मिलाप करे-वे ही इसे भक्ति और मुक्ति का अक्षय धन दे देंगे और फिर उसे बिना किसी कठिनाई के प्रभु का दर्शन दीदार हो जायेगा।'' अतः सन्त सद्गुरुदेव जी की सहायता की बड़ी आवश्यकता होती है। इस ब्राहृ-ज्ञान के मार्ग पर पग बढ़ाते हुए जब तक उनका गहरा सम्पर्क प्राप्त न होगा, उनके चरण-कमलों में दृढ़ अनुराग न होगा उनके समीप बैठकर ब्राहृविद्या की गम्भीर गुत्थियों को सुलझाया न जाएगा और उनके बताये हुए सुरत-शब्द-योग के अभ्यास की साधना न की होगी तब तक ऊपर गिनाये हुए गुण केवल पाठ-मात्र होंगे। वे अपने अन्तःकरण में ठहर न सकेंगे। और जब तक सन्त सत्पुरुषों की संगति न मिलेगी और अपने में सद्गुणों की ज्योति न जगेगी तब तक अपने आसन पर बैठना (आत्मस्थिति) असम्भव हो जायेगा।

Wednesday, February 3, 2016

संत उदय संतत सुखकारी

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी।।

अर्थः-""सन्तों का अभ्युदय अर्थात् उनका संसार में शुभागमन सदैव ही सुखकर होता है जैसे चन्द्रमा एवं सूर्य का उदय सम्पूर्ण विश्व के लिये सुखदायक है।'' ऐसे दैवीगुण सम्पन्न मनुष्य उत्तम श्रेणी के मनुष्य हैं। दूसरे प्रकार के मनुष्य वे हैं जो स्वलाभ एवं स्वहित के साथ साथ परहित एवं परलाभ का भी ध्यान रखते हैं। वे मध्यम श्रेणी के मनुष्य हैं। तीसरे वे हैं जो स्वलाभ अथवा स्वहित को ही दृष्टिगत रखते हैं। स्वलाभ अथवा स्वहित के लिये वे दूसरों को हानि पहुँचाने में भी कोई दोष नहीं समझते। ये आसुरीगुण सम्पन्न मनुष्य निम्नश्रेणी के मनुष्य हैं। चौथे वे हैं जो केवल अन्यान्य प्राणियों की हानि की ही सोचते रहते हैं। अन्यों को हानि पहुँचाने के लिये वे अपनी हानि तक करने को तत्पर हो जाते हैं। श्री रामचरितमानस में ऐसे मनुष्यों के लिये वर्णन है।

Monday, February 1, 2016

सतगुरु के उपकार का....

सतगुरु के उपकार का बदला दिया न जाइ।
तीन लोक की सम्पदा, भेंटत मन सकुचाइ।।
जैसे सतगुरु तुम करी, मुझ से कछु न होय।
विष भाँडे विष काढ़ करि, दिया अमी रस मोय।।

अर्थः-सतगुरु के उपकार का बदला नहीं दिया जा सकता। उनके उपकार के बदले में तीन लोक की सम्पदा भेंट करते हुये भी मन में संकोच का अनुभव होता है; क्योंकि उस उपकार की तुलना में तीनों लोक की सम्पत्ति और वैभव भी तुच्छ हैं। शिष्य गुरु के उपकार के मूल्य को जानता समझता है। इसलिये वह प्रार्थना करता है कि ऐ सतगुरु! जो आपने मुझ पर उपकार किया है, उसके बदले में मुझ से कुछ भी नहीं हो कता। आपने तो हमारे विष-भरे मन में से विषैली वासनाओं को निकालकर उनके स्थान पर प्रेमाभक्ति का अमृत भर दिया। भला इससे बड़ा उपकार और क्या हो सकता है?

सद्गुरु की महिमा-भवसागर से तरना


कथा कीरतन कलि विषै, भव सागर की नाव।
कबीर जग के तरन को, नाहीं और उपाव।।

अर्थः-श्री कबीर साहिब के विचारानुसार इस घोर कलिकाल में जब कि चहुँओर दूषित वातावरण दृष्टिगोचर होता है तथा तपस्यादि कठिन साधनों का आश्रय ग्रहण करना असम्भवप्राय प्रतीत होता है; भवसागर से तरने के लिये कथा-कीर्तन ही वह सुदृढ़ नौका है, जो जीवात्मा को पार पहुँचा सकती है। इसे छोड़कर कोई अन्य उपाय अथवा साधन नहीं दिखायी देता, जिसके आधार संसारी प्राणी भव-पार हो सकें।