Wednesday, December 28, 2016

राम कृपा नासहिं सब रोगा

राम कृपा नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सद्गुरु वैद वचन बिस्वासा। संजम यह न विषै कै आसा।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान सरधा मति पूरी।।
एहि विधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहित जतन कोटि नहिं जाहीं।।
अर्थः-ये सभी रोग प्रभु-कृपा से विनष्ट हो सकते हैं। हाँ, हरि कृपा से यदि ऐसा सुन्दर संयोग बन जावे तो, ईश-कृपा की प्राप्ति के लिये पहले श्री सद्गुरुदेव को अपना समर्थ वैद्य बनावे। उनके श्री वचनों पर अचल विश्वास रखे। पथ्य-सेवन यह है कि विषय-वासनाओं से दूर रहे। प्रभु-भक्ति ही वह संजीवनी वटी है, जिसके प्रयोग से सभी व्याधियों का विनाश हो सकता है। औषधि लेते हुये अटूट श्रद्धा को अऩुपान समझे। श्रद्धासहित भक्ति अति आवश्यक है। इस साधन के बिना और कोई मार्ग नहीं है इन मानसिक क्लेशों से मुक्त होने का।

Sunday, November 27, 2016

अब सुनु परम विमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।.

अब सुनु परम विमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि  बखानी।.
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर विविध प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सबते अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी।।
तिन्ह महँ प्रिय विरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहुँ ते अति प्रिय बिग्यानी।।
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहुँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।
भगतिहीन विरञ्चि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवन्त अति नीचउ प्राणी। मोहि प्रानप्रिय अस मम बानी।।
अर्थः-श्री भगवान राम चन्द्र जी महाराज अपने प्रिय भक्त काकभुशुण्डि जी को उपदेश कर रहे हैं कि हे काक! अब मेरी पवित्र वाणी को सुन; जो सत्य है, तथा जिसकी बड़ाई वेद शास्त्रों में भी गायी गई है। मैं तुझे अपना निजी सिद्धान्त अर्थात् रहस्य की बात सुनाता हूँ। इसे सुनकर मन में धारण कर ले तथा सबका मोह त्यागकर मेरे भजन में मन लगा। वह रहस्य यह कि सम्पूर्ण सृष्टि मेरी माया के द्वारा उत्पन्न हूई है। सृष्टि में जितने भी चर अथवा अचर जीव हैं, वे सब मेरे ही उपजाए हुए हैं तथा सभी मुझे समान रुप से प्रिय हैं। इन सब जीव प्राणियों में मुझे मनुष्य सर्वाधिक प्रिय है, क्योंकि यह मेरा ही प्रतिरुप है। साधारण मनुष्यों में मुझे ब्रााहृण तथा ब्रााहृणों में वेदपाठी मुझे अधिक प्रिय हैं। उनसे भी अधिक प्रिय वे हैं, जो धर्म कर्म की मर्यादा में चलने वाले हैं। पुनः उनसे भी अधिक प्रिय वे हैं, जो वैराग्यवान हैं। उनसे भी ज्ञानी अधिक प्रिय हैं तथा ज्ञानियों से कहीं बढ़कर मुझे विज्ञानी प्रिय हैं। विज्ञानियों से भी बढ़कर मुझे अपने दास और सेवक प्रिय हैं, जिन्हें एकमात्र मेरा ही आधार है तथा किसी अन्य की आशा जिनके चित में नहीं है। मैं यह तथ्य तुझसे बार बार कहता हूँ कि अपने सेवक के समान मुझे अन्य कोई भी प्रिय नहीं है। यदि साक्षात् ब्राहृा भी मेरे सम्मुख आ जावे और जब मैं उसमें भी भक्ति का अभाव पाऊँगा, तो वह मेरे लिये एक साधारण जीव होगा-इसके विपरीत यदि कोई नीचवंश में उत्पन्न जीव भक्तिभाव में रँगा है, तो वह मुझे प्राणों के समान प्रिय है-यह मेरा अचल सत्य वचन है।

Friday, November 18, 2016

संत असंतन्हि कै असि करनी।

संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।
अर्थः-सन्तों और असन्तों की करनी ऐसी है जैसे चन्दन और कुल्हाड़ी का आचरण होता है। हे भाई, सुनो! कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है, परन्तु चन्दन अपने स्वभाव वश अपना गुण देकर उसे सुगन्ध से सुवासित कर देता है। अभिप्राय यह कि सन्त भी बुराई के बदले सदा भलाई ही करते हैं।

Monday, November 14, 2016

जहाँ मात-पिता सुत मीत न भाई।

जहाँ मात-पिता सुत मीत न भाई। मन उहाँ नाम तेरे संग सहाई।।
जहाँ महाभयानक दूत जम दले, तहाँ केवल नाम संग तेरे चले।।
जहाँ मुश्किल होवे अति भारी, हर को नाम खिन माहिं उधारि।।
अनिक पुण्याचरण करत नहीं तरे, हर को नाम कोटि पाप परिहरे।।
गुरुमुख नाम जपो मन मेरे, नानक पावो सुख घनेरे।।
अर्थः-पंचम पादशाही जी उपदेश करते हैं कि ऐ जीव! जब अन्तिम काल में माता-पिता, पुत्र-मित्र आदिक तेरा साथ छोड़े देगें वहाँ मालिक का नाम ही तेरी सहायता करेगा और जिस मार्ग में बड़े भयानक यम के दूत तुझे मारेंगे वहाँ पर केवल मालिक का नाम ही तेरा साथ देगा। और जहाँ बड़े से बड़ी कठिनाइयां सामने आयेंगी वहाँ पर प्रभु के सच्चे नाम के प्रताप से वे सब क्षण भर में दूर हो जायेंगी। जहाँ तू अनेकों पुण्य-दान आदि शुभकर्म करने से भी पार नहीं हो सकता। वहाँ मालिक के सच्चे नाम की शरण लेने से करोड़ों पाप दूर हो जायेंगे और जीव भवसागर को तर जायेगा। अन्त में समझाते हैं कि ऐ मेरे मन! तू गुरुमुख बनकर अर्थात् गुरु की शरण और सहारा लेकर नाम जप जिससे तू अगणित सुखों का भागी बन जावे। यह तेरा अपना मुख्य कर्म है और इसीलिये ही मनुष्य देह मिली है नहीं तो पीछे पछताना पड़ेगा।

Wednesday, November 9, 2016

जब एक हुआ तब दस होते, दस हुए तो सौ की इच्छा है।

जब एक हुआ तब दस होते, दस हुए तो सौ की इच्छा है।
सौ पाकर भी तो चैन नहीं, अब सहरुा होयें तो अच्छा है।।
बस इसी तरह बढ़ते-बढ़ते राजा के पद पर पहुँचा है।
इतने पर भी सन्तोष नहीं, ऐसी यह डायन तृष्णा है।।
जब तक यह मन में तृष्णा है, तब तक सुप्रकाश नहीं होता।
आयु सब नष्ट हो जाती है, तृष्णा का नाश नहीं होता।।
अर्थः-जिसके पास एक है, वह दस चाहता है। तथा जिसे दस प्राप्त हैं, वह सौ को पाने की इच्छा करता है। जब सौ मिल जाते हैं, तब भी मन को चैन नहीं पड़ता। तब कहता है कि मेरे पास हज़ार हों तो अच्छा रहे। इसी प्रकार तृष्णा क्षण क्षण बढ़ती जाती है। तृष्णा के बढ़ते बढ़ते मन की अवस्था यह हो जाती है कि यदि मनुष्य को तीनों लोक के राजा का पद भी प्राप्त हो जाये; तब भी मन में शान्ति का उदय नहीं होता। यह तृष्णा ऐसी डायन है कि तृप्त होने में आती ही नहीं। जब तक मन में संसारी भोगों की तृष्णा का निवास है; तब तक भक्ति और सच्चाई का प्रकाश मन में हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार तृष्णा के पंजे में फँसे रहकर मनुष्य की पूरी आयु नष्ट हो जाती है, किन्तु तृष्णा का नाश फिर भी नहीं होता। यह पूर्ववत् प्रबल बनी रहती है तथा मनुष्य को सर्वदा निन्नानवें के फेर में फिराती रहती है।

Friday, November 4, 2016

राजन कउनु तुमारै आवै।।

राजन कउनु तुमारै आवै।।
ऐसो भाउ बिदर को देखियो ओहु गरीबु मोहि भावै।।1।।रहाउ।।
हसती देखि भरम ते भूला रुाी भगवानु न जानिआ।।
तुमरो दुधु बिदर को पानी अंमृतु करि मैं मानिआ।।1।।
खीर समानि सागु मैं पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी।।
कबीर की ठाकरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी।।2।।
हे महाराजा दुर्योधन! तुम्हारे पास कोई क्यों आये जब कि तुम्हारे ह्मदय में राज्य का मद है, परन्तु विदुर जी की दीनता,नम्रता और भक्ति-भावना को देखकर हमारा दिल उस पर रीझ गया है। हे राजन्! तुम तो अपने राजमद के भ्रम में पड़कर ऐसे भूल गये हो कि श्री भगवान को भी नहीं जानते। परन्तु विदुर जी के ह्मदय में भगवान का अत्यन्त प्रेम है,इसी कारण तुम्हारे घर के दूध को त्याग कर विदुर के घर के जल को मैने अमृत करके माना और साग को खीर के समान जानकर बड़े प्रेम से खाया। मालिक के गुणानुवाद गाते हुए रात बड़े सुख से व्यतीत की। श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि प्रभु को सदा श्रद्धालु भक्त ही प्रिय होते हैं। किसी की जात-पात को न देखकर वे केवल उसकी श्रद्धा-भावना निहार कर उस पर दयाल हो जाते हैं।

Monday, October 31, 2016

काहू न कोउ सुख दुख कर दाता।

चौपाईः-काहू न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सबु भ्राता।।
योग-वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा।।
जन्म मरण यहाँ लगि जग जालू। सम्पत्ति विपति कर्म अरु कालू।।
धरणि धाम धन पुर परिवारु। स्वर्ग नरक जहाँ लग व्यवहारु।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। माया कृत परमार्थ नाहीं।।
दोहाः-सपने होय भिखारि नृप, रंक नाकपति होय।
      जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जग जोय।।
अर्थः-लक्ष्मण जी मीठी,कोमल,ज्ञान वैराग्य तथा भक्ति से भरपूर वाणी से बोले-ऐ निषादराज! संसार में न कोई किसी को सुख पहुँचा सकता है, न दुःख। हे भाई! सुख दुःख जीव को अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। योग अर्थात् मिलाप वियोग अर्थात् बिछोड़ा। भले तथा बुरे कर्मों का भोगना, मित्र-शत्रु तथा मध्यम अर्थात् निष्पक्ष आदि सब भ्रम का जाल है। इसके अतिरिक्त जन्म-मरण, जहां तक इस संसार का पसारा है-सम्पत्ति-विपत्ति-कर्म और काल-पृथ्वी घर-नगर-कुटम्ब,स्वर्ग व नरक एवं जो कुछ भी संसार में देखने सुनने और विचारने में आता है, यह सब माया का पसारा है। इसमें परमार्थ नाम मात्र भी नहीं है। जैसे सपने में राजा भिखारी होवे और कंगाल इन्द्र हो जावे परन्तु जागने पर लाभ या हानि कुछ नहीं-वैसे ही जगत् का प्रपंच स्वप्न के समान मिथ्या है। जागने पर पता लगता है कि न कोई लाभ हुआ है और न कोई हानि हुई है। यह तो सब माया का खेल था, यथार्थ कुछ भी नहीं था।

Wednesday, October 26, 2016

जब लग जानैं मुझ ते कछु होइ।

जब लग जानैं मुझ ते कछु होइ। तब उस कउ सुखु नाही कोइ।।
जब इह जानै मैं किछु करता। तब लगु गरभ जोनि महि फिरता।।
जब धारै कोऊ बैरी मीतु। तब लगु निहचलु नाही चीतु।।
जब लगु मोह मगन संगि माइ। तब लगु धरमराइ देई सजाई।।
प्रभ किरपा ते बंधन तूटै। गुरु प्रसादि नानक हउ छूटै।।
अर्थः-सब बंधनों का मूल ""हूँ मैं'' है। इस ""हूँ मैं'' के भ्रम-जाल में बंधा हुआ जीव जब तक यह समझता है कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ, तब तक सुख की स्थिति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। जब यह समझेगा कि अमुक कार्य मैने किया है, यदि मैं अमुक कार्य न करता तो वह काम हो ही न पाता, तो इस अभिमान के कारण ही उसे जन्म मरण के चक्र में भटकना पड़ता है। अपने को कर्ता मान कर जब तक किसी को मित्र और किसी को शत्रु जानेगा, तब तक उसका चित्त भी चंचल बना रहेगा और उसे सुख शान्ति प्राप्त न होगी। जब तक मोह माया में मन मग्न रहेगा तब तक धर्मराज का दण्ड भी सहना पड़ेगा। परन्तु जब सन्त सद्गुरु के सत्संग के प्रताप से उनसे नाम-रत्न की प्राप्ति हो जायेगी और भाग्यशाली जीव उस नाम की कमाई करने लगेगा, तो नाम के प्रताप से उस पर कुल मालिक की दया हो जायेगी और सब बंधन टूट जायेंगे सन्त सद्गुरु द्वारा प्रदत्त नाम में वह शक्ति है जो पल भर में पापी को पावन बना दे।

Sunday, October 23, 2016

अंतरि गुरु आराधणा, जिहवा जपि गुर नाउँ।

अंतरि गुरु आराधणा, जिहवा जपि गुर नाउँ।
नेत्रीं सतगुरु पेखणा, श्रवणी सुनना गुरु नाउँ।।
सतगुर सेती रतियाँ, दरगह पाइयै ठाउँ।।
कहु नानक कृपा करे जिसनों एह वथु देइ।।
जग महि उत्तम काढीअहि विरले केई केइ।। (गूजरी की वार म-5)
अर्थः-प्रेमी औेर गुरुमुख को चाहिए कि अपने अन्तर में सदैव गुरु की आराधना करे अर्थात् इष्टदेव सतगुरु को अन्तर्मन में बसाकर रखे। जिह्वा द्वारा वह सदा गुरु की महिमा उपमा का गान तथा गुरु के नाम का जप करे। नेत्रों द्वारा सर्वदा सतगुरु का दर्शन करे। तथा जब सतगुरु के स्थूल स्वरुप का दर्शन उपलब्ध न हो, तब नेत्रों को उनके ज्योति-स्वरुप के ध्यान में निमग्न रखे। अपने कानों के द्वारा वह निरन्तर गुरु के नाम की महिमा, गुरु उपदेश तथा महापुरुषों के वचन श्रवण करे। ये सब कार्य-क्रम उसके लिये अनुकूल एवं पौष्टिक भोजन का काम देगा। इस अभ्यास से प्रेमा भक्ति के विचारों को परिपक्वता तथा दृढ़ता प्राप्त होगी। तथा इस प्रकार की कार्यप्रणाली का परिणाम यह कि तन मन प्राण और इन्द्रियाँ सब के सब सतगुरु-प्रेम के रंग में रंगे जावेंगे तथा उस रंग में डूबे रहेंगे। फिर जो कोई स्वयं को पूर्णरुपेण गुरु प्रेम के रंग में डुबो देता है, उसे मालिक की दर्गाह में ठिकाना मिलता है। ऐसा सच्चा प्रेमी ही मालिक के दरबार में समादर प्राप्त करता तथा मालिक की दृष्टि में प्रिय होता है। प्रेमा भक्ति को अपने अंग-प्रत्यंग में रचा लेने से ही ऐसा उत्तम पद प्राप्त किया जा सकता है। श्री गुरु नानकदेव जी फरमातें हैं कि जिस पर मालिक की दया-कृपा हो; उसे ही इस उत्तम पदार्थ भक्ति का वरदान प्राप्त होता है। प्रेम के रंग में पूरा तरह डूबे रहना एवं इष्टदेव के ध्यान में निरन्तर मग्न रहना वरदान ही तो है। इस प्रकार की प्रेमी गुरुमुख आत्माएँ संसार में उत्तम आत्माएँ होती हैं तथा ऐसी आत्माएँ विरली ही हुआ करती हैं।

Wednesday, October 19, 2016

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होई नहिं बारा।।
अस बिचारि हरि भगति सयाने। मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अविद्या नासा।।
उमा जोग जप दान तप, नाना व्रत मख नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तस, जस निस्केवल प्रेम।।
पन्नगारी सुनु प्रेम सम, भजन न दूसर आन।।
यह बिचारि मुनि पुनि पुनि, करत राम गुन गान।।
अर्थः-""काकभुशुण्डी जी पक्षिराज गरुड़ को उपदेश करते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, जिससे गिरते देर नहीं लगती। यही सोच विचारकर जो सयाने भक्तजन हैं, वे मुक्ति का भी निरादर करके भक्ति की अभिलाषा करते हैं। क्योंकि प्रेमाभक्ति के द्वारा बिना किसी विशेष यत्न और परिश्रम के उस अज्ञान का नाश हो जाता है, जो जीवात्मा को संसार के बन्धन में जकड़ने का मूल कारण है।'' ""भगवान शिव पार्वती के प्रति कहते हैं, हे उमा! योग,जप, दान, तपस्या और भाँति भाँति के व्रत यज्ञ नियम आदि मिलकर भी साधक को प्रभु कृपा का वैसा अधिकारी नहीं बना सकते, जैसा कि अनन्य प्रेम बना सकता है। पुनः काकभुशुण्डी जी कहते हैं, हे गरुड़ जी! प्रेमाभक्ति जैसा अन्य भजन नहीं है। ऐसा विचारकर मुनिजन पुनः पुनः प्रभु के नाम के गीत गाते हैं।''

Saturday, October 15, 2016

धनु संपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई।।

धनु संपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई।।
घर मंदर महल सवारीअहि किछु साथ न जाई।।
हर रंगी तुरे नित पालीअहि कितै कामि न आई।।
जन लावहु चितु हरिनाम सिउ अंति होइ सखाई।।
जन नानक नाम धिआइआ गुरमुखि सुख पाई।।
अर्थः-धन-सम्पत्ति तथा माया के पदार्थ मनुष्य संचित करता है, पर अन्त में वे दुखदायी ही सिद्ध होते हैं। घर-मकान तथा महल और अनेक प्रकार की सवारियाँ-इनमें से कुछ भी मनुष्य के साथ नहीं जाता। अनेक रंगों के घोड़े आदि पाले जाते हैं और इस प्रकार अपनी सम्पन्नता तथा अपना वैभव प्रदर्शित किया जाता है; परन्तु ये अन्ततः किसी काम नहीं आते। हे सज्जनो! हरि के नाम के साथ मन लगाओ जो अन्त में मित्र बने और काम आए। श्री गुरु अमरदास जी फरमाते हैं कि जो मनुष्य सद्गुरु से सान्निध्य में रहकर तथा गुरुमुख बनकर नाम-स्मरण करता है, वह सदा सुख पाता है।

Monday, October 10, 2016

सन्तो! सहज समाधि भली।।

सन्तो! सहज समाधि भली।।
गुरु परताप भयौ जा दिन से, सुरति न अनत चली।।
आँखि न मूँदौं कान न रुधौं, काया कष्ट न धारौं।।
खुले नैन मैं हँस हँस देखौं, सुन्दर रुप निहारौं।।
कहौं सु नाम सुनौं सोइ सिमरन, खावौं पियौं सो पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखौं, भाउ मिटावौं दूजा।।
जहाँ जहाँ जावौं सोइ परिकरमा, जो किछु करौं सु सेवा।
जब सोवौं तौ करौं डंडवत, पूजौं और न देवा।।
सबदि निरंतरि मनुआ राता, मलिन वासना तियागी।
ऊठत बैठत कबहुँ न बिसरै, ऐसी ताड़ी लागी।।
कहैं कबीर यह उन्मुनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुःख सुख कै इक परै परम सुख, तेहि सुख रहा समाई।।
अर्थः-ऐ सन्तो! सहज-समाधि की अवस्था अत्युत्तम है। जब से मुझपर पूर्ण सतगुरु की कृपा हुई है; तब से मेरी सुरति अचल होकर सहज-समाधि की अवस्था में स्थिर है और कभी भूलकर भी अन्यत्र नहीं जाती। मैं न नेत्र बंद करता हूँ, न कान मूँदता हूँ और न ही शरीर को कठिन तप अथवा भूख-प्यास सहन करने का कष्ट देता हूँ। प्रत्युत् खुले नयनों से हँस हँस कर सर्वत्र अपने मालिक इष्टदेव के सुन्दर स्वरुप का दर्शन प्रतिक्षण प्राप्त करता रहता हूँ। जो कुछ मैं जिह्वा से कहता हूँ, वही मालिक का नाम और मालिक की महिमा है। जो कुछ श्रवण द्वारा सुनता हूँ, वही मानों मालिक का सुमिरण है। तथा जो कुछ मैं खाता पीता हूँ, वह मानो प्रभु की पूजा है। घर हो या जंगल, मेरे लिये दोनों में कोई भेद नहीं। मैं दोनों को एक समान देखता हूँ, क्योंकि मैने अपने चित से द्वैत अथवा भेदभाव को मिटा दिया है। मैं जहाँ जहाँ चलकर जाता हूँ, वह मानो मालिक की परिक्रमा है। तथा जो कुछ मैं करता हूँ, वह सब मेरे मालिक की सेवा-टहल है। जब मैं सो जाता हूँ, तब मानों मालिक के चरणों में दण्डवत कर रहा होता हूँ। मैं अपने इष्टदेव सतगुरु को छोड़कर किसी अन्य देव की पूजा नहीं करता। मेरा मन गुरु के शब्द में अनवरत रचा रमा रहता है। मन में से समस्त मलिन वासना-वृत्तियाँ मैने निकाल फेंकी हैं। मलिक के चरणों के साथ मेरी ऐसी लिव लगी है कि उठते बैठते, सोते जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते और काम-काज करते कभी एक क्षण भी मैं मालिक के ध्यान से ग़ाफिल नही होता। श्री कबीर साहिब जी का वचन है कि यह उन्मुनि अर्थात् मन को प्रभु चरणों में लीन कर रखने की रहनी है, जिसे मैने स्पष्ट सब्दों में वर्णन कर दिया है। सांसारिक सुख-दुःख तथा हर्ष शोकादि द्वन्द्वों की अवस्था से बहुत ऊपर एक परम सुख अथवा परमानन्द की सहज अवस्था है; जिसमें मेरा मन निरन्तर समाया रहता है।

Friday, October 7, 2016

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।
सतगुरु केवट मिलै, पार घर अपना जाना।।
जग रचना जंजाल, जीव माया ने घेरा।
तलुसी लोभ मोह बस परै, करैं चौरासी फेरा।।
इन्द्री रस सुख स्वाद, बाद ले जनम बिगारा।
जिभ्या रस बस काज, पेट भया विष्ठा सारा।
टुक जीवन के काज, लाज नहिं मन में आवै।
तुलसी काल खड़ा सिर ऊपर, घड़ी घड़ियाल बजावै।।
अर्थः-""यह संसार एक सागर है। इसकी थाह पाना जीवट का काम है। कोई विरला साहसी पुरुष ही इसमें कूदकर इससे पार होने की प्रबल चेष्टा करता है। तिस पर भी अपने बल पर भला कौन पार हो सका है। जब तक सतगुरु मल्लाह को अपने जीवन की नैय्या न सौंप दी जाये, पार हो सकना असम्भव।'' ""इस अटपटे संसार की रचना को समझ लेना आसान नहीं। लोभ और मोह यहाँ ऐसे मदमत्त गजराज हैं कि जीव को अपने पाँव तले मसलकर रख देते हैं। जिस आवागमन के चक्र से छूटने के लिये जीव मानव देह में आया था, ये बरबस ही उस ऊँचाई से खींचकर नीचे गिरा देते हैं और जीव फिर उसी चौरासी के चक्र में जा पड़ता है।'' ""इन्द्रियों के रसों के स्वाद में पड़कर जीव ने अपना सारा जीवन अकारथ गँवा दिया। संसार के भाँति भाँति के स्वादिष्ट पदार्थों का रस लेने को जीभ लपलपाती है; मगर खाने के बाद वे सब पेट में गन्दगी बन जाते हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये कुछ भी जतन नहीं किया, इतने पर भी जीव को लाज नहीं आती। तुलसी साहिब का कथन है कि काल सिर पर खड़ा हर समय कूच का नक्कारा बजा रहा है और सचेत कर रहा है कि इस रहे सहे समय में अपना काम बना ले। परन्तु इन्द्रियों के रसों में गाफिल इनसान सुनता कहाँ है?''

Monday, October 3, 2016

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।
डेरा परिया काल का, निशिदन रोकै बाट।।
अर्थः-खाहिश का बीज ऐसा है कि यदि मुट्ठी भर बोया जाये, तो मन भर उगता है। ज़रा सी खाहिश बढ़कर और फैलकर इतना दीर्घ सूत्रपात करती हैं कि फिर उनके फैलाये जाल को तोड़ सकना असम्भव सा हो जाता है। और यह तो मानी हुई बात
है ही कि जिस मन में वासनाओं का तूफान होगा वहाँ काल का डेरा भी अवश्य जमा रहेगा और वह रात-दिन तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति मार्ग में रुकावट डालता रहेगा।
मन भरि के जे बोईयै, घुँघची भर नहीं होय।
कहा हमार मानियो नहीं, जन्म जायेगो खोय।।
अर्थः-इन मानसिक विकारों को जिस कदर भी तरक्की दी जाये, इनसे कुछ भी हासिल नहीं होता। अगर ये बढ़ते-बढ़ते मन भर की मात्रा में भी हो जायें तो भी ये जीव को मुट्ठी भर लाभ तक नहीं पहुँचा सकते। ये जिस कदर ज़्यादा बढ़ेंगे उसी कदर ही इनसे रुहानी नुकसान की उम्मींद है। इसीलिये सन्त जन फरमाते हैं कि ऐ जीव! अगर हमारे सत्उपदेश से लापरवाही करके इन्हीं मानसिक विकारों के फेर में ही पड़े रह गये तो फिर यह कीमती इनसानी जन्म यों ही खोया जायेगा। इसलिये जहाँ तक हो सके जीव को इन मानसिक विकारों से और बुराईयों से किनारा करके सत्पुरुषों की राहनुमाई में चलकर नाम और भक्ति की सच्ची कमाई करके ऊँचे दर्ज़े को प्राप्त करना चाहिये।

Wednesday, September 28, 2016

मोर तोर की जेवरी, बटि बाँधा संसार।

मोर तोर की जेवरी, बटि बाँधा संसार।
दास कबीरा क्यों बँधै, जाके नाम आधार।।
मैं मैं बुरी बलाय है, सको तो निकसो भागि।
कहैं कबीर कब लगि रहै, रुई लपेटी आगि।।
अर्थः-""श्री कबीर साहिब उपदेश करते हैं कि स्वयं ही मेरे तेरे पने की एक सुदृढ़ रस्सी बट कर यह जगत उसमें बँध रहा है। परन्तु मालिक के सच्चे दास इस बन्धन में कभी नहीं बँधते, क्योंकि उन्होंने ममता अहंता को त्यागकर मालिक के नाम का आधार जो ले रखा है।'' "" मैं मैं अर्थात् ममता बहुत बुरी बला है। जहाँ तक सम्भव हो, इसके फन्दे से निकल भागने का यत्न करो। यदि अपनी सुरक्षा अभीष्ट है, तो इस ममता का परित्याग करना ही होगा। रुई में लिपटी आग भला कब तक रह सकेगी? अन्ततः रुई को जला कर ही मानेगी। इसी प्रकार मैं-मेरी के विचारों की अग्नि भी अन्त में मनुष्य की भक्ति प्रेम की भावनाओं को नष्ट भ्रष्ट करके उसी लुटिया ही डुबो देगी।''

Friday, September 23, 2016

सुत दारा और लच्छमी,

सुत दारा और लच्छमी, हर काहू के  होय।
सन्त समागम हरि कथा, तुलसी दुर्लभ दोय।।
अर्थः- इस जगत में स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्ति प्रभुति तो हर किसी के पास अपनी अपनी प्रारब्ध अनुसार होते ही हैं। इनका होना कोई बड़ी बात नहीं। ये कुछ ऐसी दुर्लभ विभूतियाँ नहीं, जिनकी कामना की जाये। जगत में बहुमूल्य एवं दुर्लभ विभूतियाँ तो केवल दो ही हैं, जिन्हें प्राप्त कर मनुष्य का जीवन धन्य और जन्म सफल हो जाता है तथा जिनकी आकांक्षा सदैव करनी ही चाहिये। वे हैं सत्पुरुषों का सत्संग और मालिक का भजन। जो इनकी कामना करता है, वही बुद्धिमान है।

Sunday, September 18, 2016

भवजल अगम अथाह

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।
सतगुरु केवट मिलै, पार घर अपना जाना।।
जग रचना जंजाल, जीव माया ने घेरा।
तलुसी लोभ मोह बस परै, करैं चौरासी फेरा।।
इन्द्री रस सुख स्वाद, बाद ले जनम बिगारा।
जिभ्या रस बस काज, पेट भया विष्ठा सारा।
टुक जीवन के काज, लाज नहिं मन में आवै।
तुलसी काल खड़ा सिर ऊपर, घड़ी घड़ियाल बजावै।।

अर्थः-""यह संसार एक सागर है। इसकी थाह पाना जीवट का काम है। कोई विरला साहसी पुरुष ही इसमें कूदकर इससे पार होने की प्रबल चेष्टा करता है। तिस पर भी अपने बल पर भला कौन पार हो सका है। जब तक सतगुरु मल्लाह को अपने जीवन की नैय्या न सौंप दी जाये, पार हो सकना असम्भव।'' ""इस अटपटे संसार की रचना को समझ लेना आसान नहीं। लोभ और मोह यहाँ ऐसे मदमत्त गजराज हैं कि जीव को अपने पाँव तले मसलकर रख देते हैं। जिस आवागमन के चक्र से छूटने के लिये जीव मानव देह में आया था, ये बरबस ही उस ऊँचाई से खींचकर नीचे गिरा देते हैं और जीव फिर उसी चौरासी के चक्र में जा पड़ता है।'' ""इन्द्रियों के रसों के स्वाद में पड़कर जीव ने अपना सारा जीवन अकारथ गँवा दिया। संसार के भाँति भाँति के स्वादिष्ट पदार्थों का रस लेने को जीभ लपलपाती है; मगर खाने के बाद वे सब पेट में गन्दगी बन जाते हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये कुछ भी जतन नहीं किया, इतने पर भी जीव को लाज नहीं आती। तुलसी साहिब का कथन है कि काल सिर पर खड़ा हर समय कूच का नक्कारा बजा रहा है और सचेत कर रहा है कि इस रहे सहे समय में अपना काम बना ले। परन्तु इन्द्रियों के रसों में गाफिल इनसान सुनता कहाँ है?''

Wednesday, September 14, 2016

जेहि सुख को खोजत फिरै,

जेहि सुख को खोजत फिरै, भटकि भटकि भ्रम माहिं।।
भूला जीव न जानई, सुख गुरु चरणन आहि।।
अर्थः-जिस सच्चे सुख की खोज और तलाश में यह जीव भटक भटक कर अनन्त काल से धोखे और भरम के फेर में पड़ा हुआ है, उसको यह भूला जीव खुद नहीं जान सकता, जबकि वह सच्चा सुख, सच्ची खुशी और सच्ची शान्ति पूर्ण सतगुरु के चरणों में है।

Sunday, September 11, 2016

कबीर मन तीखा किया लाइ बिरह खरसान।

कबीर मन तीखा किया लाइ बिरह खरसान।
चित चरनों से चिपटिया, का करै काल का बान।।
अर्थः-बिरह और प्रेमाभक्ति एक प्रकार की खरसान है। जब मन को इस खरसान पर लगाया जाता है; तो उसकी सब मलिनता, अपवित्रता, सुस्ती और कमज़ोरी दूर होती है। तथा इन दुर्गुणों के बदले उसमें सच्चाई, भक्ति प्रेम और परमार्थ का बल भर जाता है। तब यही मन मनुष्य को आत्मोन्नति के शिखर की ओर ले जाने का साधन बन जाता है। भक्ति-बल पाकर मन प्रतिक्षण मालिक से मिलने की तड़प में व्याकुल रहता है। मानो प्रतिपल मालिक के चरणों से चिमटा हुआ है। क्योंकि जिस मन में सच्ची तड़प और लगन है, उसे सदा मालिक से मिला और जुड़ा हुआ ही जानना चाहिये। तथा जब मन मालिक से मिला रहेगा। तो काल का बाण उसका क्या बिगाड़ सकता है?

Sunday, September 4, 2016

कबीर मन परबत हुआ

कबीर मन  परबत हुआ, अब मैं पाया जानि।
टाँकी लागी सबद की, निकसी कंचन खानि।।
पहले यह मन काग था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुगि चुगि खात।।
मन मनसा को मारि करि नन्हा करि के पीस।
तब सुख पावै सुन्दरी, पदुम झलक्कै सीस।।
मनहीं को परमोधिये, मन हीं को उपदेस।
जो यहि मन को बसि करै, सिष्य होय सब देस।।
अर्थः-""श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि मुझे अब यह ज्ञात हुआ कि मन तो पर्वत के समान कठोर था। परन्तु जब इस पर गुरु शब्द की टाँकी से चोट लगाई गई, तो मन की चट्टान में से भक्ति परमार्थ रुपी सोने की खान निकल आई।'' ""पहले यह मन कौव्वे के समान स्वभाव वाला था अर्थात् विषय भोगों के मलिन आहार का मतवाला होकर आत्मा का घात कर रहा था। परन्तु अब तो गुरुकृपा से यह मन हंस का रुप बन गया है और परमार्थ के मोती चुन चुन कर खाता है।'' ""ऐ जीव! मन के समस्त नीच विकारों तथा वासनाओं को मार कर और बारीक करके पीस डाल। जैसे संखिया को भस्म करके पीस दिया जाता है और वह अमूल्य औषध बन जाता है।  इसी प्रकार मन को बारीक करके पीसने का अर्थ है मनोविकारों में सुधार करना। जब मन का सुधार हो जाए; तब यह अन्तर्मुख होकर परमार्थी मन बन जावेगा तथा आत्मा रुपी सुन्दरी को अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। वह मन की खटपट से मुक्त होकर सुखी होगी तथा उसके सिर पर सौभाग्य का कमल खिलकर जगमगाने लगेगा।'' ""मन ही को समझाने और उपदेश करने की आवश्यकता है मन ही को सुधारकर और साधकर आज्ञाकारी बनाना आवश्यक है। जो कोई इस मन को अपने वश में कर लेता है, तो समस्त संसार ही उसका शिष्य बनने को तत्पर हो जाता है।

Thursday, September 1, 2016

कथा कीरतन कलि विषै

कथा कीरतन कलि विषै, भव सागर की नाव।
कबीर जग के तरन को, नाहीं और उपाव।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब के विचारानुसार इस घोर कलिकाल में जब कि चहुँ ओर दूषित वातावरण दृष्टिगोचर होता है तथा तपस्यादि कठिन साधनों का आश्रय ग्रहण करना असम्भवप्राय प्रतीत होता है; भवसागर से तरने के लिये कथा-कीर्तन ही वह सुदृढ़ नौका है, जो जीवात्मा को पार पहुँचा सकती है। इसे छोड़कर कोई अन्य उपाय अथवा साधन नहीं दिखायी देता, जिसके आधार संसारी प्राणी भव-पार हो सकें।

Sunday, August 28, 2016

कहा कियौ हम आइ कै, कहा करहिंगै जाय।

कहा कियौ हम आइ कै, कहा करहिंगै जाय।
इत्त के भये न उत्त के, चालै मूल गँवाय।।
श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि जब ऐसी अवस्था है तो जीव ने संसार में आकर क्या कुछ किया तथा यहाँ से जाते हुये क्या मुख लेकर मालिक के दरबार में जायेगा। यह तो न इधर का रहा न उधर का अर्थात् न लोक सँवारा और न परलोक ही। प्रत्युत् अपनी सच्ची पूँजी अर्थात् मानव जन्म के अधिकार को भी गँवाकर चल दिया। तात्पर्य यह कि यदि आत्मा के कल्याण के लिये कुछ करता, तो मानव जन्म का अधिकार तो कम-अज़-कम बना रहता। किन्तु जीवन में बुराई की और रुख रखने के कारण अपना यह अधिकार भी गँवा बैठा।

Wednesday, August 24, 2016

प्रभुता को सब को भजै, प्रभु को भजै न कोय।

प्रभुता को सब को भजै, प्रभु को भजै न कोय।
जे कबीर प्रभु को भजैं , प्रभुता चेरी होय।।
अर्थः-प्रभु की दी हुई माया और बड़ाई को तो हरेक चाहता है, किन्तु उस मालिक को कम लोग ही चाहते हैं। श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि जो जीव प्रभु का भजन करते हैं, तो माया और बड़ाई खुद-बखुद ही दासी बनकर उसकी सेवा में हाज़िर रहती हैं।

Monday, August 22, 2016

दया कौन पै कीजिए, का पै निर्दय होय।

दया कौन पै कीजिए, का पै निर्दय होय।
सार्इं के सब जीव हैं, कीरी कुञ्जर दोय।।
अर्थः-ऐ मुमुक्षु पुरुष! तू किस विचार में पड़ा है कि मैं किस जीव को मारुँ और किस पर दया कर दूँ। धिक्कार है तेरी ऐसी समझ को। सभी जीव कीड़ी से लेकर हाथी तक में वही तेरा आत्मा ही ओत-प्रोत है। तू अपने से भिन्न किसको देखना चाहता है? सब में तू ही स्थित है। तू योग पथ पर चला है। तेरी दृष्टि में कण कण के अन्दर वही तेरा मालिक ही मुस्करा रहा है ऐसा विश्वास रखना चाहिये। जन्म मरण के भीषण दुःखों से पहले ही प्राणी आकुल व्याकुल हैं। दुःखियों को तू और क्यों पीड़ा पहुँचाना चाहता है?

Friday, August 19, 2016

कथनी मीठी खाँड सी, करनी विष की लोय।

कथनी मीठी खाँड सी, करनी विष की लोय।
कथनी तजि करनी करै, तो विष से अमृत होय।।
करनी बिन कथनी कथे, गुरु पद लहै न सोय।
बातों के पकवान से, ध्रापा नाहीं होय।।
करनी बिन कथनी कथ, अज्ञानी दिन रात।
कूकर ज्यों भूँसत फिरे, सुनी सुनाई बात।।
अर्थः-""कथनी तो खाँड जैसी मीठी भासती है तथा करनी अथवा आचरण विष के समान कड़वा प्रतीत होता है। परन्तु मनुष्य यदि कथनी बातें त्यागकर अपने सात्विक ज्ञान को आचरण का रुप दे दे, तो विष को भी अमृत बना सकता और बना लेता है।'' ""जो व्यक्ति कथनी बातें तो बढ़ बढ़कर बनाता है, किन्तु आचरण से
कोरा है; वह गुरु भक्ति को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि बातों के पक्वान्नों से आज तक किसी की क्षुधा शान्त होती नहीं देखी गयी। अर्थात् क्षुधातुर मनुष्य यदि उत्तमोत्तम स्वादिष्ट पक्वान्नों के नाम ही रटता रहे, तो उसका पेट कभी भरेगा नहीं। विपरीत इसके यदि रुखी सूखी रोटी के दो कौर खा ले, तो उसकी क्षुधा एवं व्याकुलता का अन्त हो सकता है तथा मन को तुरन्त शान्ति एवं तृप्ति उपलब्ध होती है।'' उन्हें ज्ञानवान नहीं जानो जो शास्त्र ज्ञान को कहते ही रहते हैं उसके अनुसार जीवन को नहीं बनाते। उसकी यदि अज्ञानी से उपमा दी जाये जो रात-दिन अपने मन के विचारों के अनुसार व्यर्थ ही विवाद करता रहता है-तो अनुचित न होगा। ऐसे अविवेकी पुरुष सन्त सत्पुरुषों के विमल वचनों के मरम को नहीं समझ सकते। उसे बुद्धिमान कौन कहेगा? ""यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्''-ज्ञानपूर्वक जिसका कर्म है वह वास्तव में विद्वान है। सन्त महात्माओं के सत्संग का पूरा लाभ किन को होता है? जो महापुरुषो के वचन को जीवन में उतार लेते हैं। जो केवल वाणी के धनी हैं, शास्त्रों के अर्थ ही लगाया करते हैं उन वचनों पर अपने जीवन को नहीं चलाते उन लोगों का चित्र सन्त पलटू दास जी इस तरह उतारते हैं।

Tuesday, August 16, 2016

गुरु मिला तब जानियै, मिटै मोह सन्ताप।

गुरु मिला तब जानियै, मिटै मोह सन्ताप।
हर्ष शोक दाझै नहीं, तब गुरु आपहिं आप।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि पूर्ण परमार्थी गुरु के मिलने का फल यही है कि सेवक अथवा शिष्य के चित से माया मोह के समस्त विकल्प सर्वथा नष्ट हो जावें, जोकि पाप-ताप-सन्ताप को उत्पन्न करने वाले हैं। मोहजनित विकल्प दूर हो गये, तो उनसे उत्पन्न होने वाले ताप सन्ताप और क्लेश भी स्वतः नष्ट हो गये। तब ऐसे सेवक के चित को हर्ष-शोक, सुख-दुःखादि द्वन्द्व विचलित नहीं कर सकते। तथा जब मन की पवित्रता और शुद्धि की ऐसी अवस्था को हस्तगत कर लिया गया; तब उसके परिशुद्ध ह्मदय के स्वच्छ दर्पण में सच्चे गुरु का ही प्रतिबिम्ब दिखायी देने लगता है। अर्थात् शिष्य सेवक का अहं-अभिमान विगलित होकर वहाँ केवल गुरु ही गुरु शेष रह जाता है।

Thursday, August 11, 2016

बन्दा जानै मैं करौं, करणहार करतार।

बन्दा जानै मैं करौं, करणहार करतार। तेरा किया न होयगा, होवै होवनहार।।
होवै होवनहार, भार नर यों ही ढोवै। अपजस करै अपार, नाम नारायण खोवै।।
कहै दीन दरवेश, परै क्यों भरम कै फन्दा। करणहार करतार, करैगा क्या तूँ बन्दा।।

अर्थः-मनुष्य समझता है कि जो कुछ कर रहा हूँ, बस मैं ही कर रहा हूँ; जबकि वास्तविकता यह है कि सब कुछ करने और कराने वाला मालिक ही है। ऐ मनुष्य! तेरे करने धरने से कुछ भी होने वाला नहीं। होगा तो वही, जो होनहार है। अर्थात् जो मालिक की मौज है तथा जैसा मालिक चाहेगा, वैसा और वही कुछ होगा। सो जब होना वही कुछ है, जो मालिक ने पहले से ही रचा रखा है; तो फिर यही कहा जायेगा कि मनुष्य अंह अभिमान के वशीभूत होकर व्यर्थ ही मैं मेरी का बोझा अपने सिर पर ढोता है तथा इस अभिमान में मालिक के नाम को भुलाकर बहुत बड़ी हानि उठा रहा है। सन्त दीन दरवेश साहिब का कथन है कि ऐ बन्दे! तू भ्रम के फन्दे में क्यों फँस रहा है। सब कुछ करने करानेहार तो वह मालिक ही है। तू किस गणना में है कि कुछ करके दिखला सकेगा।(इस शब्द में मालिक की मौज को शिरोधार्य करने का उपदेश है। जिसे भक्ति कहते हैं। वह यथार्थतः मालिक की मौज में राज़ी रहने तथा सिर झुका देने का ही नाम है।

Sunday, August 7, 2016

ध्यान लगावहु त्रिपुटी द्वार, गहि सुषमना बिहँगम सार।

ध्यान लगावहु त्रिपुटी द्वार, गहि सुषमना बिहँगम सार।
पैठि पाताल में पश्चिम द्वार, चढ़ि सुमेरु भव उतरहु पार।।
हफ़त कमल नीके हम बूझा, अठयें बिना एको नहिं दूजा।
"शाह फकीरा' यह सब धंद, सुरति लगाउ जहाँ वह चंद।।


अर्थः-ऐ जीव! त्रिकुटी के द्वार में अपना ध्यान लगा। सुषमना नाड़ी को पकड़कर बिहंगम चाल की सार गहनी को धारण करके। पश्चिम के द्वार से पाताल में प्रवेश कर जाओ और सुमेरु-पर्वत पर चढ़कर भवसागर के पार कर लो। हमने सात कमलों को भली-भान्ति समझ लिया है। उन सातों से आगे कोई आठवाँ नहीं है। शाह फकीर साहिब का कथन है कि संसार के धन्धे सब मिथ्या हैं। अपनी सुरति को वहाँ लगाओ, जहाँ चन्द्रमा का प्रकाश तथा उजाला है। यह सब अन्तरीव अभ्यास का इशारा है। मनुष्य के शरीर के अंदर ईड़ा-पिंगला और सुषमना तीन बड़ी नाड़ियाँ, जो नाभि देश से उठकर दिमाग की तरफ या पिण्डदेश से ब्राहृाण्ड देश को जाती है। इनमें से मुख्य सुषमना नाड़ी है, जो बीच की है। इसी के द्वारा प्राण को ऊपर चढ़ाकर त्रिकुटी में मालिक की ज्योति का ध्यान किया जाता है। जब सुरति शरीर को छोड़कर ऊपर चढ़ने लगती है, तो सात कमलों के सात स्थान है, जो उसके मार्ग में आते हैं सुरति इनको पार करती हुई और ऊपर चढ़ती हुई उस उच्चतम स्थान पर जा पुहँचती है, जिसे सुमेरु पर्वत की चोटी का नाम दिया गया है और जहाँ प्रकाश ही प्रकाश सब ओर फैला हुआ है। इसका भेद पूर्ण गुरु से प्राप्त होता है। सतगुरु की दया से ही ये मन्ज़िले तय हो सकती हैं। जिससे अन्तरीव शान्ति प्राप्त होती है।

Wednesday, August 3, 2016

सो दिन कैसा होयगा, गुरु गहैंगे बाँहि।

सो दिन कैसा होयगा, गुरु गहैंगे बाँहि।
अपना करि बैठावहीं, चरन कमल की छाँहि।।
बिरह कमंडल कर लिये, बैरागी दोउ नैन।
माँगैं दरस मधूकरी छके रहैं दिन रैन।।
अँखियाँ तो झार्इं परी पंथ निहार निहार।
जिभ्या तो छाला परा, नाम पुकार पुकार।।
कबीर बैद बुलाइया, पकरि के देखी बाँहि।
बैद न वेदन जानई, करक करेजे माँहि।।
जाहु बैद घर आपने तेरा किया न हो।
जिन या वेदन निर्मई, भला करैगा सोय।।
अर्थः-""वह कैसा भाग्यवन्त दिन होगा जब कि गुरुदेव मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लेंगे और मुझे अपना जान कर अपने चरणकमलों की छाया में बिठलायेंगे?'' ""मेरे दोनों नयन वैरागियों के सदृश हैं, जो अपने हाथों में बिरह (तड़प) रुप कमण्डल लिये हुये केवल दर्शन की भिक्षा माँगती रहती हैं; जिसे पाकर वे रात-दिन तृप्त हुई रहें।'' ""प्रियतम के आने का मार्ग देखते देखते नेत्रों के गिर्द काले हलके पड़ गये हैं और उनका नाम पुकारते पुकारते जीभ पर छाले पड़ गये; किन्तु वे हैं कि अब तक नहीं आये।'' "" श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि हमारी ऐसी दीन दशा देखकर लोगों ने रोगग्रस्त जानकर हकीम को बुलवा लिया। हकीम ने आकर नब्ज़ देखी; किन्तु हकीम इस रोग को नहीं परख सकता, क्योंकि कसक अथवा पीड़ा तो कलेजे में है।'' ""ऐ वैद्य! अपने घर लौट जाओ। तेरे किये से कुछ भी नहीं होने का। यह रोग तो उसी के हाथ से अच्छा हो सकेगा,जिसने ये पीड़ा प्रदान की है।''

Sunday, July 31, 2016

मन जानत सब बात, जानत ही औगुन करै।

मन जानत सब बात, जानत ही औगुन करै।
काहे को कुसलात , हाथ दीप कूएँ परै।।

अर्थः-श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि मनुष्य का मन सभी बातों का जानकार है। वह भली प्रकार जानता है कि भलाई किसमें है और बुराई किसमें? कौन सा काम करने से लाभ होगा और किससे हानि होगी। किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि सब कुछ जानता समझता हुआ भी मानव मन बुराई औगुण स्वार्थ एवं विषय लोलुपता की ओर अधिक आकृष्ट रहता है। यह तो वही बात हुई जैसे कोई हाथ में दीपक लेकर कुएँ में जा गिरे। जहाँ ऐसी अवस्था हो, वहाँ कुशलता की आशा रखना व्यर्थ है।

Wednesday, July 27, 2016

कबीर संगति साध की, हरै और की ब्याधि।

कबीर संगति साध की, हरै और की ब्याधि।
संगति बुरी असाध की, आठौं पहर उपाधि।।
मूरख से क्या बोलियै , शठ से कहा बसाय।
पाहन में क्या मारियै, चोखा तीर नसाय।।
लहसन से चन्दन डरै, मत रे बिगारै बास।
निगुरा से सगुरा डरै, डरपै जग से दास।।
हरिजन सेती रूसना, संसारी से हेत।
ते नर कधी न नीपजै, ज्यों कालर का खेत।।
ऊँचे कुल कहा जनमिया, जो करनी ऊँच न होय।
कनक कलस मद से भरा, साधन निन्दा सोय।।


अर्थः-""श्री कबीर साहिब जी कथन करते हैं कि साधुओं की संगति दूसरों के दुःख और कष्ट को हर लेने वाली है। परन्तु असाधु-पुरुषों की संगति बुरी है; जिसमें रहकर आठों पहर उपाधि का सामना होता है।'' ""मूरख पुरुष से बोलने का क्या लाभ? और शठ (मूढ़) व्यक्ति पर किसी का क्या बस चल सकता है? पत्थर में तीर मारने से आखिर लाभ ही क्या है? कि उलटे तीर भी टूटकर रह जाता है।'' ""चन्दन लहसुन से डरता है कि कहीं उसकी संगति से चन्दन की सुगन्धि ही न बिगड़ जाये। इसी प्रकार ही निगुरे मनुष्य से गुरुमुख जीव डरते हैं कि उनकी संगति से कहीं बुरे संस्कार न अन्दर में प्रविष्ट हो जायें और मालिक का सच्चा दास इसी भान्ति संसारी मनुष्य की संगति से डरता है।'' ""मालिक के भक्तों से रुठे रहना और संसारी मनुष्यों से प्रेम करना-जिस मनुष्य का ऐसा स्वभाव हो; वह कभी भी फल फूल नहीं सकता, जैसे कि कालर भूमि में खेती उत्पन्न नहीं हो सकती।'' ""यदि मनुष्य की करनी ऊँचे दर्ज़े की नहीं है, तो फिर ऊँची कुल में जन्म लेने से लाभ ही क्या? क्योंकि सोने का कलश भी यदि शराब से भरा हुआ हो, तो साधु-पुरुषों ने उसकी भी निन्दा की है।''

Monday, July 25, 2016

कवणु सु अखरु कवण गुणु कवणु सु मणीआ मंतु।।

कवणु सु अखरु कवण गुणु कवणु सु मणीआ मंतु।।
कवणु से वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु।।
अर्थः-मैं कौन सी विद्या पढ़ूँ कौन सा गुण अपनाऊँ, कौन सी मणियों की माला पहनूँ तथा कौन सा मंत्र जपूं और कौन सा वेष धारण करुं, जिससे अपने मालिक को प्रसन्न कर सकूं और उसे अपना बना सकूं?

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहवा मणिआ मंतु।
ऐ त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु।।

अर्थः-दीनता और नम्रतापूर्वक रहने की विद्या पढ़, दूसरे की भूल को क्षमा कर देने का गुण अपना तथा मधुर और नम्र वचनों की माला पहन। जब आत्मा यह वेष धारण करेगी, तभी मालिक को प्राप्त करने में सफल होगी। दीनतापूर्वक रहना, क्षमा करना तथा मधुर वचन बोलना-ये तीनों ही एक प्रकार के वशीमंत्र हैं जिनको जीवन में अपनाने से मालिक तो क्या तीनों लोकों को वश में किया जा सकता है।

Thursday, July 21, 2016

जाकी गुरु में वासना सो पावै भगवान।

जाकी गुरु में वासना सो पावै भगवान।
सहजो चौथे पद बसै, गावत वेद पुरान।।
साध-संग की बासना, जेहि घट पूरी सोय।
मनुष-जन्म सतसंग मिलै, भक्ति परापत होय।।
अर्थः-""अन्त समय जिसकी सुरति गुरु के ध्यान में जुड़ जाती है। उसे परमेश्वर की प्राप्ति होती है। सहजो बाई जी कथन करती हैं ऐसा जीव चौेथे पद अर्थात् परमपद का अधिकारी बनता है। वेद और पुराण भी इसका समर्थन करते हैं।'' "" देह त्यागने के समय अगर ध्यान सत्संग और सन्तों के दर्शन की ओर चला जावे तो दूसरा जन्म उसे मनुष्य का मिलेगा जिसे पाकर वह भक्ति और सत्संग की ओर पग बढ़ावेगा।''

Tuesday, July 19, 2016

सूली ऊपर घर करै, विष का करै अहार।

सूली ऊपर घर करै, विष का करै अहार।
ता को काल कहा करै, जो आठ पहर हुशियार।।

परमसन्त श्री कबीर साहिब का कथन है कि जिस गुरुमुख ने भक्ति के कठिन मार्ग में पाँव रखा है और जो संसार की स्तुति-निन्दा, मानापमान आदिक को सहता है ( क्योंकि भक्तिमार्ग में जो मन-माया के साथ जूझना होता है, वह मानो सूली पर घर करना है; तथा जो संसार की भली-बुरी, गर्म-सर्द सहना है, यह मानो विष का भोजन है); जो गुरुमुख पुरुष इस प्रकार आठों पहर होशियार है, उसका भला काल क्या बिगाड़ सकता है?

Saturday, July 16, 2016

सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल सन्त।।

सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल सन्त।।
तैसे सीतल सन्त जगत की ताप बुझावैं।
जो कोइ आवै जरत मधुर मुख बचन सुनावैं।।
धीरज सील सुभाव छिपा ना जात बखानी।
कोमल अति मृदु बैन बज्र को करते पानी।।
रहन चलन मुसकान ज्ञान को सुगंध लगावै।
तीन ताप मिट जायें संत के दर्सन पावैं।।
पलटू ज्वाला उदर की रहै न मिटै तुरन्त।
सीतल चन्दन चन्द्रमा तैसे सीतल सन्त।।
अर्थः-जिस प्रकार चन्दन और चन्द्रमा शीतल होते हैं, उसी प्रकार सन्त भी स्वभाव से अति शीतल होते हैं। अपने शीतल स्वभाव से वे सांसारिक प्राणियों के तपते हुये ह्मदयों को शान्त शीतल करते हैं। जो कोई उनकी शरण में आता है, अपने मधुर वचनों द्वारा वे उसके ज्वलित ह्मदय को शान्त करते हैं। सन्तों में विद्यमान धैर्य एवं क्षमा तथा उनके शील स्वभाव का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। उनके कोमल, मृदुल वचनों से पत्थर ह्मदय मनुष्य भी पिघल जाता है और दानवता त्यागकर मानव बन जाता है। उनके मुखमंडल पर सदैव मधुर मुस्कान खेला करती है और वे सदैव ज्ञान की सुगन्ध चहुँ ओर फैलाया करते है। जो कोई भी उनके पवित्र दर्शन करता है, उसके तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं। सन्त पलटूदास जी कथन करते हैं कि जो प्राणी सन्तों की चरण शरण में आ जाता है, उसके अन्तर की ज्वाला अर्थात् अशान्ति तुरन्त मिट जाती है जिससे उसका ह्मदय शान्तमय हो जाता है।

Tuesday, July 12, 2016

मन गोरख मन गोबिंदा, मन ही औघड़ सोय।

मन गोरख मन गोबिंदा, मन ही औघड़ सोय।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय।।
मन मोटा मन पातला, मन पानी मन लाय।
मन के जैसी ऊपजै तैसी ही ह्वै जाय।।
मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोय।
एक रंग में जो रहै, ऐसा विरला कोय।।
अर्थः-""यह मन बड़ा कुशल अभिनेता है। यह गोरखनाथ भी बन सकता है और गोबिन्द भी। यही अवधूत भी बन जाता है और जो कोई मन को जतन से रखना सीख ले, तो वह मालिक से भी मिला देता है। यही मन स्थूल भी है और सूक्ष्म भी। यह आग भी है और पानी भी। मन में जैसी जैसी तरंगें पैदा होती हैं, वैसा ही रुप बन जाता है। यह मन क्षण क्षण में रंग बदलता रहता और इसके अनेक रुप हैं। परन्तु कोई विरला गुरु का सेवक ही गुरु के ध्यान में मन को लीन करके एक रस रह सकता है।''

Saturday, July 9, 2016

जितना हेत कुटुम्ब स्यौ, उतना गुरु सों होइ।

जितना हेत कुटुम्ब स्यौ, उतना गुरु सों होइ।
चला जाय बैकुण्ठ में, पल्ला न पकड़ै कोइ।।
अर्थः-सन्तों ने कहा है कि कुटुम्ब के साथ जितना नेह है, उतना ही यदि गुरु के पावन चरणों में जीव का हो जाये; तो अबाध गति से बैकुण्ठ में चला जा सकता है। सतगुरु के प्रेम का इतना बड़ा प्रताप  है।

Friday, July 8, 2016

अलि पतंग मृग मीन गज, जरत एक ही आँच।

अलि पतंग मृग मीन गज, जरत एक ही आँच।
"तुलसी' ताकी कौन गति, जाको लागे पांच।।
"तुलसी' ये तो पांच हैं, और भी होत पचास।
रघुवर जाकै रिदै बसे, ताको कौन त्रास।।
अर्थः-भंवरा, पतंगा, मृग, मछली और हाथी- ये सब एक-एक ही इन्द्रिय के स्वाद की आग में जल कर जीवन को नष्ट कर बैठते हैं। भंवरा सुगन्ध के लोभ में मारा जाता है, मृग मधुर संगीत का आखेट होता है, मछली को जिह्वा का स्वाद जाल में फंसा देता है, पतंग दीपक की सुन्दरता पर मोहित होकर प्राण गंवा बैठता है और हाथी विषय वासना के अधीन होकर ज़ंज़ीरों मे जकड़ा जाता है। सन्त तुलसीदास जी कथन करते हैं कि वह मनुष्य जो इन पांचों स्वादों के अधीन हो, उसकी क्या दशा होगी? परन्तु फिर कहते हैं कि सम्पूर्ण संसार की दशा एक समान नहीं। आम संसार निःसन्देह इन स्वादों का आखेट हो रहा है परन्तु भाग्यशाली गुरुमुख प्रेमी जो सन्त सद्गुरु की चरण शरण का सहारा ले लेते हैं, उनकी आज्ञा और मौज के अन्दर चलते हैं, तो उनके लिये सन्त तुलसीदास जी का फरमान है कि पांच तो क्या चीज़ हैं चाहे पचासों शत्रु भी एक साथ आक्रमण करें, तो भी उसका बाल तक बांका नहीं कर सकते जिसके सिर पर सद्गुरु धनी का हाथ हो।

Wednesday, July 6, 2016

फ़रीदा चारि गाँवाइया ङंढि कै, चारि गँवाइया संमि।

फ़रीदा चारि गाँवाइया ङंढि कै, चारि गँवाइया संमि।
लेखा रब्बु मंगेसिया, तूँ आयौं केरे कंमि।।
अर्थः-शेख फरीद साहिब का कथन है कि ऐ मनुष्य! तूने दिन के चार पहर तो सांसारिक धन्धों तथा इन्द्रियों की भोग वासनाओं की पूर्ति करने में गँवा दिये तथा रात्रि के चार पहर ग़फ़लत की नींद में सोकर नष्ट कर दिये। घड़ी भर के लिये कभी भूलकर भी मालिक की याद और भजन-सुमिरण तूने नहीं किया। परन्तु जब मृत्यु के उपरान्त मालिक के दर्बार में जा उपस्थित होगा। वहाँ मालिक तुझसे तेरे कर्मों का व्योरा माँगेगा तथा पूछेगा कि तू जगत मे किसलिये आया था और क्या कुछ करके आया है? तब क्या उत्तर देगा? भजन भक्ति की कमाई से हीन होने पर वहाँ तो घोर तिरस्कार एवं लज्जा का सामना होगा।

Monday, July 4, 2016

मिसरी मिसरी कीजिए, मुख मीठा नाहीं।

मिसरी मिसरी कीजिए, मुख मीठा नाहीं।
मीठा तब ही होइगा, छिट कावै माहीं।।
बातों ही पहुँचौ नहीं, घर दूरि पयाना।
मारग पन्थी उठि चलै, "दादू' सोह सयाना।।
भाव यह कि मिश्री-मिश्री करने से किसी का मुँह कभी मीठा हुआ है? ओ! मुँह तो तभी मीठा होगा जब उसमें मिश्री की डली डालोगे। चलने से तो डरे और दूर रहे केवल बातों से क्या कोई घर पहुँचा है? पथिक तो चतुर वही कहा जायेगा जिसने चुपचाप अपना मार्ग पकड़ लिया।

Friday, July 1, 2016

गुरु पग निस्चै परसिये, गुरु पग हिरदै राख।


सहजो गुरु पग ध्यान करि, गुरु बिन और न भाख।।
अर्थः- जिसको भी नित्य सुख और पूर्ण शान्ति की इच्छा हो वह दृढ़ विश्वास एवं अचल श्रद्धा के साथ श्री सद्गुरुदेव जी के चरणारविन्दों का स्पर्श करे। उन्हें अपने ह्मदय में धारण करे-आठों पहर अपने मन को उनके ध्यान में स्थिर करने का प्रयत्न करे और उनकी महिमा के बिना और किसी के गीत न गाये।

Monday, June 27, 2016

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।
डेरा परिया काल का, निशिदन रोकै बाट।।
अर्थः-खाहिश का बीज ऐसा है कि यदि मुट्ठी भर बोया जाये, तो मन भर उगता है। ज़रा सी खाहिश बढ़कर और फैलकर इतना दीर्घ सूत्रपात करती हैं कि फिर उनके फैलाये जाल को तोड़ सकना असम्भव सा हो जाता है। और यह तो मानी हुई बात है ही कि जिस मन में वासनाओं का तूफान होगा वहाँ काल का डेरा भी अवश्य जमा रहेगा और वह रात-दिन तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति मार्ग में रुकावट डालता रहेगा।

Friday, June 24, 2016

21.06.2016

अधिक सनेही माछरी, दूजा अल्प सनेह।
जब ही जल से बिछुरै, तत छिन त्यागै देह।।
अर्थः-मछली का जल के प्रति प्रबल प्रेम है। उसकी तुलना में प्रेम के अन्यान्य उदाहरण तुच्छ हैं। क्योंकि मछली तो ज्योंही जल से बिछुड़ती है, उसी क्षण तड़पने लगती है और तड़पती हुई प्राणोत्सर्ग कर देती है। जब पशु-पक्षियों और साधारण जीवों के चित्त में प्रेम की इतनी प्रबल भावनाएँ विद्यमान हैं, तो फिर विचार करो कि गुरुमुखों का मालिक के चरणों में कितना अधिक प्रेम होना चाहिये।

Tuesday, June 21, 2016

मैं मेरी जब जायेगी, तब आवेगी और।

मैं मेरी जब जायेगी, तब आवेगी और।
जब यह निश्चल होयगा, तब पावैगा ठौर।।
मोर तोर की जेवड़ी, बटि बाँध्यौ संसार।।
दास कबीरा क्यों बँधै, जाकै नाम अधार।।
अर्थः-""ऐ भद्रपुरुष! जब तू मैं-मेरी की झपट से निकलकर तू-तेरी के चंगुल से भी निकल आवेगा; तब कहीं जाकर मोक्षधाम की देहली पर पहुँचेगा।'' ""ऐ प्रेमी! सचजान, यह सारा संसार मेरे और तेरेपने की सुदृढ़ रस्सियों में ऐसा जकड़ा पड़ा है कि सैंकड़ों जन्म तक भी इन रस्सियों से छुटकारा नहीं पा सकता। यदि किसी मनीषी के मन में अपने सत्गुरु के बख्शे हुये पवित्र नाम की दृढ़ टेक है, तो केवल वही एक मुक्त पुरुष है। वह मेरे-तेरे पने का सब पर्दा फाड़कर अमृत-पान करने का अधिकारी बन जाता है।''

Friday, June 17, 2016

कह कबीर छूछा घट बोले। भरया होय सो कबहुं न डोले।।

कह कबीर छूछा घट बोले। भरया होय सो कबहुं न डोले।।
छुद्र नदी भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।

अर्थः-""फरमाते हैं कि सदैव रीता घड़ा ही आवाज़ करता है, भरा हुआ घड़ा आवाज़ नहीं करता।'' ""छोटे छोटे नदी-नाले वर्षा के दिनों में किनारों को तोड़ते हुये उछल-उछल कर बहने लगते हैं जैसे अज्ञानी और दुष्ट मनुष्य थोड़े से धन पर भी अहंकार करने लगता है। इसके विपरीत गम्भीर नदियां बारह मास ही अत्यन्त शान्त गति से प्रवाहित होती रहती हैं जैसे कुलीन धनवान् लोग करोड़पति होकर भी विनीत, सुशील एवं शान्तचित्त बने रहते हैं।

Wednesday, June 15, 2016

चरनदास यों कहत है,

चरनदास यों कहत है, सुनियो सन्त सुजान।
मुक्ति मूल अधीनता, नरक मूल अभिमान।।

अर्थः-नम्रता से ही मुक्ति मिलती है। अर्थात् मुरीद बनने के लिए नम्रता का गुण आवश्यक है। अभिमान तो पतन की ओर ले जाने वाला है। अतः जब तक अहंकार की भावना विद्यमान है तब तक मुरीद नहीं कहला सकता।

Monday, June 13, 2016

भले से भला करे, यह जग का व्यवहार।

भले से भला करे, यह जग का व्यवहार।
                बुरे से भला करे, ते विरले संसार।।
प्रायः संसार में यही देखने में आता है कि जो भलाई करे लोग उसके साथ ही भलाई करते हैं, परन्तु उदारता तो इसी में है कि मनुष्य बुराई के बदले भलाई करे जैसे कि वृक्ष पत्थर मारने वाले को भी फल और छाया देता है। अतएव ऐ जिज्ञासु! तू भी ऐसा करना सीख और बुराई के बदले भलाई कर।
तराज़ू से अदल का हुनर पायाः-अदल का अर्थ है न्याय अर्थात् उचित और अनुचित का विवेक। तराज़ू सबको न्याय सिखाता है। ज़रा सी वस्तु घट-बढ़ जाने पर फौरन ही पलड़ा नीचे-ऊपर हो जाता है। दूसरे की आत्मा को अपनी आत्मा के सदृश जान कर ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे दूसरों की आत्मा को दुःख हो। अपनी आत्मा में तनिक सी मलिनता आने पर उसका प्रभाव दूसरों की आत्मा पर पड़ता है। भाव यह कि दूसरों के लिये वह मत सोचो जो तुम्हें स्वयं के लिये अच्छा नही लगता। दूसरों को अपने से हीन समझना अपनी ही हीनता है। फारसी कवि का कथन हैः-
                हर चे बर ख़ुद म पसन्दी, ब दीगरां म पसन्द।।
अर्थात् जो तुम्हें पसन्द नहीं है वह दूसरों के लिये भी अच्छा मत समझो।
करो इख़लास सबसे एक जैसा, माहेताबां ने यह नुस्खा पढ़ायाः- इख़लास का अर्थ है व्यवहार और माहेताबां का अर्थ है चांदनी। जैसे चांदनी हर स्थान पर और हर वस्तु पर एक सी रोशनी व ठंडक बरसाती है वैसे ही मनुष्य को हर किसी से हमदर्दी और प्रेम का व्यवहार करना चाहिये। जैसे चांद रोशनी देता है वैसे ही परमार्थी का जीवन लोगों के लिये आत्मिक रोशनी देने वाला एवं पथ प्रदर्शक सिद्ध हो। ऐ जिज्ञासु! तुझे भी यदि जीवन के लक्ष्य को पाने की अभिलाषा है तो सबके साथ समान भाव और निःस्वार्थ भाव से प्रेम भरा व्यवहार कर तभी तू अपने लक्ष्य को पा सकेगा। कितना परमार्थ अर्थात् रुहानी राज़ भरा हुआ है सत्पुरुषों के एक एक वचन में।
     श्री परमहँस दयाल जी फरमाते हैं कि ऐ जिज्ञासु! प्रकृति की प्रत्येक जड़ वस्तु तुझे शिक्षा दे रही है, तू उनसे शिक्षा ले और अपने जीवन को तदनुरुप आचरण में ढाल। हमने भी इन जड़ वस्तुओं से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उनकी शिक्षानुसार बनाया तभी अपने ध्येय को प्राप्त करने में सफल हुये। सन्त महापुरुष सदा इसी मार्ग पर चलते आये हैं और चलते रहेंगे। परमार्थ,परोपकार, समदृष्टि, न्यायोचित व्यवहार, सच्चाई तो उनके मुख्य नियम व सिद्धांत हैं। इन नियमों के पालन करने से ही सत्पुरुषों की पदवी प्राप्त होती है। वास्तव में नेक आचरण ही जीवन है। यही एक मात्र साधन है अपने ध्येय की प्राप्ति का।  इसी मार्ग पर चल कर जिज्ञासु को अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिये।

Saturday, June 11, 2016

बन्दे कोलों रुख चंगेरा, जेहड़ा लग पवे बिन लायों।

बन्दे कोलों रुख चंगेरा, जेहड़ा लग पवे बिन लायों।
ढीमा खाये ते फल खवाये, अते फ़रक न करदा छायों।।
चंगा खावें ते चंगा पहनें, अते रब्ब दा नाम भुलायों।
आख ग्वाला मोयां जीउंदियां, तू केड़े कम आयों।।
प्रायः पेड़ अपने आप ही बिना लगाये उगते हैं। फिर इनमें यह विशेष गुण है कि पत्थर मारने पर भी वे फल देते हैं। अपनी छाया देने में भी वे भेदभाव नहीं रखते। वृक्षों से मनुष्य के सहरुाों काम भी होते हैं। फल, फूल, पत्ता, टहनी और तना सब कुछ मनुष्य के काम आता है। किसी ने तो यहां तक कहा है कि मनुष्य का जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वृक्षों से सम्बन्ध है। बालपन में झूला एवं खिलौने, यौवनावस्था में मेज़-कुर्सी आदि, बुढ़ापे में सहारे के लिये लाठी, जीवन भर खाना बनाने को र्इंधन, यहां तक कि मृत्यु के बाद अन्तिम संस्कार के लिये भी लकड़ियों की ही आवश्यकता पड़ती है। घरों में ठाठबाठ की अधिकतर वस्तुयें लकड़ी की ही बनती हैं। तात्पर्य यह कि वृक्षों से मनुष्य के सहरुाों काम संवरते हैं। सन्त ग्वालदास जी कहते हैं कि ऐ मनुष्य! तूने यदि अच्छा खाते-पीते एवं पहनते हुये भी मालिक के नाम को भुला दिया तो फिर तूने जीवित रहकर क्या किया? मरणोंपरान्त तो वैसे भी तेरा यह शरीर किसी काम नहीं आता। जीवन में भी यदि तूने भजन-बन्दगी न की तो समझ तूने अपना जीवन व्यर्थ कर दिया। अतः ऐ जिज्ञासु! अब भी समझ और वृक्ष की न्यार्इं दूसरों के काम आ

Thursday, June 9, 2016

वासर सुख नहीं रैन सुख, ना सुख धूप न छाँह।

वासर सुख नहीं रैन सुख, ना सुख धूप न छाँह।
कै सुख सरने राम के, कै सुख सन्तों माँह।।
अर्थः-ऐ मनुष्य! हरि की शरण में अथवा सन्त सत्पुरुषों की संगति में ही सच्चे सुख की आशा की जा सकती है नहीं तो जीव के मन में दिन हो या रात, धूप हो या छाया किसी दशा में भी पूर्ण शान्ति नहीं आ सकती। जीवन काल में इस उपरिलिखित दोनों की प्राप्ति का सफल प्रयत्न करना ही मनुष्य का "अपना काम' है। अन्यथा इस प्रपंच का तो यह स्वरुप भर्तृहरि-निति शतक में वर्णन करते हैः-

Monday, June 6, 2016

छाजन भोजन प्रीति सों, दीजै साधु बुलाय।

छाजन भोजन प्रीति सों, दीजै साधु बुलाय।
जीवत जस है जगत में, अन्त परम पद पाय।।
अर्थः-जो मनुष्य अत्यन्त प्रीति से विभोर होकर हर्षित ह्मदय से, बड़े चाव और निष्ठा से सन्त महात्माओं को अपने घर बुला कर रहने के लिये आवास और खाने के लिये परम श्रद्धा-भावनायुक्त परम प्रीति से सना हुआ सात्विक भोजन अर्पित करता है वह संसार में जीते जी यशस्वी कहलाता है। और मरणोपरान्त मोक्ष-पद को प्राप्त करता है।

Friday, June 3, 2016

ऐसो दुर्लभ जात शरीर।

ऐसो दुर्लभ जात शरीर। राम नाम भजु लागै तीर।
गये बेणु बलि गेहै कंस। दुर्योधन गये बूड़े बंस।।
पृत्थु गये पृथ्वी के राव। विक्रम गये रहे नहिं काव।।
छौं चकवै मंडली के झार। अजहूँ हो नर देखु विचार।।
गोपीचन्द भल कीन्हों योग। रावण मरिगो करतै भोग।।
जात देखु अस सबके जाम। कहैं कबीर भजु रामैं राम।।
अर्थः-ऐसा दुर्लभ एवं अनमोल मानुष शरीर हाथों से चला जा रहा है। यदि तू मालिक का भजन करे, तो तेरी नाव किनारे पर लगे। संसार की झूठी बड़ाई तथा मिथ्याभिमान किस काम का? जबकि बेणि, बलि और कंस जैसे महासम्राट भी संसार से मिट गये। दुर्योधन जैसे भी मृत्यु के मुख में चले गये और उनके वंश का नाम तक डूब गया।  समस्त भूमण्डल के एकाधिपति राजा पृथु भी न रहे और विक्रमादित्य भी शेष न रहे। ये छहों राजा जिनके नाम ऊपर आये हैं; कोई साधारण राजा नहीं थे, वरन् छत्रपति सम्राट थे। ऐ मनुष्य! अब भी तनिक विचार करके देख कि जब ऐसे ऐसे सृष्टि में होकर मिट गये, तो फिर स्वयं तू किस गिनती में है? परन्तु इनकी तुलना में राजा गोपीचन्द भी हुए हैं, जिन्होने संसार के भोगैश्वर्य तथा विलास-सामग्रियों में आसक्त न रहकर मालिक के भजन में मन लगाया, फलतः आज तक उनका नाम संसार में उज्ज्वल एवं अमर है। रावण भी तो कुछ कम सामथ्र्यवान और वैभवसम्पन्न नहीं था, किन्तु वह सांसारिक भोगों का मतवाला होकर मर मिटा। सृष्टि के रंगमञ्च से उसका नाम भी मिट गया। उसकी असत्य एवं अधर्म-प्रियता तथा उसके मिथ्याभिमान के कारण आज तक संसार उसके नाम से घृणा करता है और सब उसकी निंदा-भत्सर्ना करते हैं। ऐसे वैभव तथा ऐश्वर्य से लाभ भी क्या? श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि इसी प्रकार सबके शरीर नश्वर हैं और नष्ट होंगे ही। परन्तु यदि जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त करना है और मर कर भी अमर रहने की कामना है, तो मालिक के भजन मे मन लगाओ। मालिक का भजन ही केवल मनुष्य को उस अजर अमर पद की प्राप्ति करा सकता है। जहाँ काल अथवा मृत्यु की पहुँच नहीं।




Thursday, June 2, 2016

सपने होइ भिखारि नृपु, रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियं जोइ।।
अर्थः-एक राजा जो अपने भव्य राजभवन में बहुमुल्य मख़मली गद्दों पर रात्रि समय विश्राम करता है; वह स्वप्न में अपने आपको द्वार द्वार भिक्षाटन करने वाले भिखारी के रुप में देखता है और अत्यन्त दुःखी होता है। इसी प्रकार एक दीन-दरिद्र प्राणी स्वप्न में अपने को स्वर्ग के राजा इन्द्र के सिंहासन पर आसीन देखता है; तो वह अपने मन में अति प्रसन्न होता तथा अभिमान से फूल जाता है। परन्तु जब दोनों जागते हैं; तब राजा स्वयं को पूर्ववत् मख़मली गद्दे पर सोया हुआ पाता है और दरिद्र अपने को यथावत् द्वार द्वार का भिखारी पाता है। जाग्रत में न एक को कुछ लाभ हुआ, न दूसरे को कुछ हानि हुई। दोनों ही ज्यों के त्यों रहे। इसी प्रकार जगत के समस्त दृश्य भी स्वप्निल हैं तथा इनमें जो सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि उपजाने वाली घटनाएँ घटित एवं अनुभूत होती हैं। यह सब भी स्वप्नवत् मिथ्या और भ्रममूलक हैं। इनमें यथार्थ कुछ भी नहीं।



Saturday, March 26, 2016

सतगुरु से परिचय बिना, भरमत फिरै अन्धेर।

सतगुरु से  परिचय बिना, भरमत फिरै अन्धेर।
सूरज के निकसै बिना, कैसे होय सवेर।।

अर्थः-जब तक सन्त सतगुरु का परिचय नहीं मिला अर्थात् जीव जब तक उनसे यथार्थ दर्शन करने वाली दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं कर लेता; तब तक जीव मोह भ्रम के अन्धकार में भटकता रहता है। जिस प्रकार सूर्य के उदय हुए बिना दिन का उजाला नहीं होता; वैसे ही सतगुरु कृपा के बिना मोह अज्ञान और भ्रम का नाश नहीं हो सकता।

Friday, March 25, 2016

जैसे लहर समुद्र की, सतगुरु कीन्हा वाक।

जैसे लहर समुद्र की, सतगुरु कीन्हा वाक।
वाक हमारा फेर दिया, तो हम तुम कैसा साक।।

अर्थः-सतगुरु के ह्मदय सागर से एक मौज उठी-जो वचन के रुप में शिष्य पर उतरी। अगर शिष्य वह वचन नहीं मानता और उस वाक्य को वापस लौटा देता है तो परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि फिर गुरु और शिष्य में नाता क्या रहा? यह सम्बन्ध तो वचन और आज्ञा का है और वचन मानकर आज्ञानुसार सेवा करने से सेवक के अन्दर स्वयं ही भक्ति प्रेम व सच्चाई और रुहानियत घर करने लगती है इसके विपरीत यदि श्रद्धाभावना में थोड़ी सी भी कमी आ जाय तो सेवक का पैर सेवा की सीढ़ी से फिसल पड़ता है और जीव कहाँ से कहाँ जा गिरता है क्योंकि सेवक की पूँजी तो सेवा ही है जो सेवक को स्वामी से मिलाकर रखती है।

Wednesday, March 23, 2016

कबीर गुरु की भक्ति का, मनमें बहुत हुलास।

कबीर गुरु की भक्ति का, मनमें बहुत हुलास।
मन मनसा माँझै बिना, होन चहत है दास।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि मनमें गुरु-भक्ति प्राप्त करने की लालसा तो बहुत है; परन्तु यह मन है कि सांसारिक इच्छाओं तथा मनमति को मलियामेट किये बिना ही गुरु के दास अथवा भक्त का दर्ज़ा पा लेना चाहता है। जब ऐसी दशा है, तो सफलता कैसे प्राप्त हो?

Sunday, March 20, 2016

जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।

जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोेनों हाथ उलीचिये, यही सयाना काम।।

अर्थः-ऐ विचारशील मानव! यदि नौका के अन्दर आवश्यकता से अधिक जल भर जाये और घर में बहुत अधिक संसार का ऐश्वर्य एकत्र हो जाय तो विचक्षण पुरुष को चाहिये कि दोनों वस्तुओं अर्थात् जल और धन सम्पदा को नाव और घर में से शक्ति के अनुसार बाहर उछाल दे। नहीं तो वह नैया और वह गृहस्थ जीवन विनाश के कारण बन जाएंगे।

Friday, March 18, 2016

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञान करि, अज्ञानी भुगतै रोय।।

अर्थः-महापुरुषों ने फरमाया कि शरीर को धारण करके प्रत्येक जीव को सुख-दुःख भोगना पड़ता है, परन्तु अन्तर केवल इतना है कि विचारवान गुरुमुखजन मालिक की मौज और अपने भाग्य का लिखा समझ कर प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सहन करते हैं जबकि आम संसारी मनुष्य दुःख के समय रोता और चीखता-चिल्लाता रहता है। इसलिये दुःखों के आने पर दुःखी मत होवो, अपितु मालिक का प्रसाद समझकर उसमें सुख मानो और हाय-हाय के स्थान पर वाह-वाह करते हुये जीवन के चार दिन प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर लो। चाहे कितना भी दुःख-कष्ट अनुभव हो, तुम सदैव मालिक की मौज में प्रसन्न रहना सीखो।

Wednesday, March 16, 2016

मीन काटि जल धोइयै, खाये अधिक प्यास।

मीन काटि जल धोइयै, खाये अधिक प्यास।
रहिमन प्रीति सराहियै, मुएहू मीत की आस।।
अर्थः-मछली को काटकर जल में धो दिया जाता है फिर उसे पकाकर खाया जाता है। खाने के उदरस्त होने पर भी जल की प्यास लगती है। यह इस बात का प्रमाण है कि मछली मरकर, कटकर और पककर भी अपने प्रियतम के मिलन के लिये तड़प रही है। वह अब भी "जल-जल' पुकार रही है।
मरे हुये भी उदर में जल चाहत है मीन।।
अर्थात् मछली मरकर भी पेट में जल माँगती है। प्रिय-मिलन की तीव्र उत्कण्ठा का भला इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है? सन्तों का कहना है कि अपने मालिक से प्रेम करना है तो ऐसा ही करो। यह एक आदर्श उदाहरण है। कि प्रेम तो वही है कि प्रेमी प्रियतम के बिना क्षणमात्र जीवित न रह सके तथा मरकर भी प्रियतम का ही नाम पुकारता रहे।

Monday, March 14, 2016

अन्धे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।।

ज्ञानी से कहिये कहा, कहत कबीर लजाय।
अन्धे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी कथन करते हैं कि हम इन ज्ञानियों से जो केवल वेदादि शास्त्रों के शब्दों और अर्थों को ही भलीभाँति जानते हैं। जिनका जीवन उन शास्त्रों के वचनों के अनुसार ढला नहीं है। क्या कहें? उनसे हमारा अनुभव सिद्ध बातें करना ऐसे ही निरर्थक होगा जैसे कोई नट बड़ी सुन्दरता से नाच करता हो परन्तु जिसकी प्रसन्नता के लिये वह जो कुछ कर रहा है वह तो नेत्रहीन है। वह क्या जाने कि नृत्य-कला कैसी होती है?

Sunday, March 13, 2016

साधु आवत देखि कै, मन में करै मरोर।

साधु आवत देखि कै, मन में करै मरोर।
सो तो होसी चूहरा, बसै गाँव की छोर।।
आवत साधु न हरषिया, जात न दीया रोय।
कह कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ ते होय।।
अर्थः-""जो मनुष्य घर पर बैठे सन्तों के दर्शन पाकर अपने अहोभाग्य नहीं मानता प्रत्युत मन में खीझता है, वह शूद्र कुल का नीच प्राणी बनेगा और उसे अपने गाँव के अन्दर कोई भी नहीं रहने देगा। उसका निवास गाँव के पार किनारे पर होगा।'' ""उचित तो यह है कि सन्तों के शुभ, मनोरम दर्शन हों तो चित्त गुलाब के फूल की न्यार्इं खिल कर प्रफुल्लित हो जाए और उनसे वियुक्त होने पर ह्मदय में विषाद भर जाये। जिस प्रकार शरीर से सम्बन्ध रखने वाले किसी सगे सम्बन्धी के बिछुड़ने पर दुःख होता है उसी प्रकार आत्मा के निकट सम्बन्धी सन्त सत्पुरुषों के वियोग में भी आँसू छलक पड़ें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। आत्मा की अपेक्षा शरीर के सम्बन्धियों को हम अधिक महत्त्व देते हैं। अपने आत्मीयजन यदि घर से जाने लगें तो हम लाख विचार करते हैं और कहते हैं कि इसे हमारे घर से खाली नहीं जाना है। कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिये। नहीं तो हमारी मान-हानि होगी। लोग हमारी निन्दा अथवा चर्चा करेंगे। ऐसी अनेक बातें सोचकर जैसे भी हो, जहाँ से भी माँग कर लाना पड़े, उस समय अतिथि का यथोचित आदरसम्मान अवश्य करेंगे और करते हैं और ऐसा करना भी चाहिये। मतलब यह है कि जिस प्रकार इन झूठे सम्बन्धियों से सम्बन्ध जोड़े रखने में अपनी शान समझते हैं उसी प्रकार आत्मा के जो सच्चे सम्बन्धी हैं उनके प्रति हमारे दिल में कितने गुना अधिक सम्बन्ध जोड़े रखने की तीव्र उत्कण्ठा का होना अनिवार्य है।

Saturday, March 12, 2016

गुरु प्रेम में मानवा, तन मन सभी रंगाय।

गुरु प्रेम में मानवा, तन मन सभी रंगाय।
फिर तू देखु विचारि करि, मोह लोभ कत जाय।।

अर्थः-ऐ मनुष्य! अपने तन मन को एक बार गुरु-प्रेम के रंग में पूरी तरह रंगा ले। तत्पश्चात तू स्वयं अपने अन्तर्मन में झाँककर देख कि लोभ-मोहादिक जिन विकारों ने तुझे चिरकाल से परेशान कर रखा था, किस प्रकार प्रेम प्रताप से पराजित होकर अपने आप ही भागने लग जाते हैं।

Friday, March 11, 2016

तू मत जानै बावरे, मेरा है सब कोय।

तू मत जानै बावरे, मेरा है सब कोय।
पिंड प्रान से बँधि रहा, सो अपना नहिं होय।।

अर्थः- ऐ बावले मनुष्य! तू यह मत समझ कि मैं जगत के भोगों और सुख-सामग्री को पाकर उनका मालिक बन गया हूँ और यह सब कुछ मेरा है। नहीं, इस भ्रम में मत रह। अन्यान्य सांसारिक सम्पत्ति का मालिक बनना तो दूर की बात रही; यह तेरा शरीर जो प्राणों की डोरी से बँधा हुआ हर समय तेरे साथ लगा है, यह भी तेरा अपना नहीं हो सकता। क्योंकि यह काल के मुख का ग्रास है और वह इसे एक दिन अवश्य तुझसे छीन ले जावेगा।

Thursday, March 10, 2016

चींटी चावल लै चली, बिच में मिलि गइ दार।

चींटी चावल लै चली, बिच में मिलि गइ दार।
कह कबीर दोउ ना मिलै, इक लै दूजी डार।।


अर्थः-च्यूंटी का उदाहरण देते हुए फरमाते हैं कि वह चावल का दाना ले जा रही थी। मार्ग में उसे दाल का दाना पड़ा हुआ मिल गया। लोभ वश उसने सोचा कि इसे भी ले चलूँ। जब वह उसे उठाने लगी तो चावल गिर पड़ा। उस एक छोटे से मुख में दो दाने तो समा नहीं सकते थे। परन्तु वह उसे भी छोड़ना नहीं चाहती थी। जब वह दोबारा चावल उठाती तो दाल का कण गिर पड़ता। इसी उधेड़ बुन में उसे पर्याप्त समय लग गया। उसकी यह दशा देखकर महापुरुषों ने कथन किया कि दोनों वस्तुएं एक साथ नहीं मिल सकतीं। तुझे हर अवस्था में एक को छोड़ना और दूसरी को लेना होगा।

Wednesday, March 9, 2016

सीस झुकायां गिर पड़े, बहु पापन की पोट।
तातें सीस झुकाइये, लगे न जम की चोट।।
सीस तुम्हारा जायेगा, कर सतगुरु की भेंट।
नाम निरन्तर लीजिये, जम की लगे न फेंट।।
अर्थः-ऐ मित्र! सिर झुकाते ही पापों की गठड़ी के गिर जाने से तू महाकाल की चोट से बच जाएगा-अतः तू सदा अपना सिर सत्पुरुषों के चरणों में झुकाए रख-अपितु अपना सिर उनके समर्पित ही कर दे वरना इसे काल ही ले जायेगा। अगर तू लगातार नाम भक्ति में मग्न रहेगा तो यमराज तेरे निकट भी न फटकेगा।

Monday, March 7, 2016

कोई तो तन मन दुखी

कोई तो तन मन दुःखी, कोई चित्त उदास।
एक एक दुःख सबन को, सुखी सन्त का दास।।

अर्थः-इस संसार में कोई तन से दुःखी है, तो कोई मन से दुःखी है तथा कोई अन्य अपने चित्त में सांसारिक चिन्ताओं को बसाकर दुःखी हो रहा है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दुःख एक न एक रोग चिमटा हुआ है। परन्तु जो सन्तों महापुरुषों का सच्चा दास अथवा सेवक है, वही वास्तविक अर्थों में सुखी है। इसलिये कि वह महापुरुषों की आज्ञा एवं मौज अनुसार आचरण करता हुआ अपने जीवन को भक्ति के साँचे में ढालता है।

Sunday, March 6, 2016

अरब खरब लौं लच्छमी, उदय अस्त लौं राज।

अरब खरब लौं लच्छमी, उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जौ निज मरन है, तौ आवै कौनै काज।।

अर्थः-सन्त तुसली साहिब का विचार है कि चाहे अरबों खरबों के मूल्य का धन एकत्र कर लिया जाये और चाहे सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक अर्थात् जहाँ से सूर्योदय होता है, वहां से लेकर सूर्यास्त की सीमा तक का साम्राज्य भी अपने अधिकार में हो। परन्तु जबकि अपना मृत्यु के मुख में जाना निश्चित है और यह भी सिद्ध है कि मृत्यु-समय ये धन और अधिकार अपनी कुछ भी सहायता नहीं कर सकेंगे; तो फिर इनका लाभ क्या हुआ?

Saturday, March 5, 2016

बिन गुरु भक्ति मोह जग, कैसे काटा जाय।।

पहले गुरु भक्ति दृढ़ करो, पाछे और उपाय।
बिन गुरु भक्ति मोह जग, कैसे काटा जाय।।

अर्थः-जिज्ञासु और भक्ति के अभिलाषी के लिये परमसन्त श्री कबीर साहिब उपदेश करते हैं कि पहले गुरु की भक्ति में दृढ़ हो जाओ, और सब उपाय पीछे करना; क्योंकि जगत का मोह जाल बिना गुरु की भक्ति के नहीं काटा जा सकता। जब तक जगत की मोह ममता का फन्दा जीव के गले में पड़ा रहता है, तब तक सब  साधन निष्फल हो जाते हैं। मोह का फंदा काटने के लिये गुरु की भक्ति अत्यन्त आवश्यक है। मुक्त पुरुष सन्त सद्गुर की सेवा और कृपा के बिना आत्मा पर पड़े हुये मन-माया के बंधन कदापि नहीं कटते। बंधनों के कटे बिना कोई भी भवसागर के पार नहीं उतर सकता।

Thursday, March 3, 2016

तीन लोक चेरी भये

तीन लोक चोरी भई, सबका धन हर लीन्ह।
बिना सीस का चोरवा, पड़ा न काहू चीन्ह।।


अर्थः-परमसन्त श्री कबीर साहिब जी का वचन है कि तीनों लोकों में चोरी 

हो रही है। हर किसी की गाँठ से सुख शान्ति का धन चुरा लिया जाता है 

परन्तु बिना सीस का वह चोर किसी को नज़र नहीं आता।

Monday, February 29, 2016

भक्तिवन्त तैसे झुके....

फल से तरु नीचे झुके, जलधर भी झुक जाहिं।
भक्तिवन्त तैसे झुके, भक्ति सम्पदा पाहिं।।

अर्थः-वृक्ष पर जब फल लगते हैं तो जितने ही अधिक फल लगते हैं, उसकी शाखायें उतनी ही अधिक झुक जाती हैं। ऐसे ही जल से भरे हुये मेघ भी धरती की ओर झुकते हैं। ठीक इसी प्रकार जो भक्ति मान पुरुष होता है, वह भक्ति की सम्पदा प्राप्त करके झुक जाता है अर्थात् विनम्र बन जाता है।

Sunday, February 28, 2016

हंसा बगुला एक सा

हंसा बगुला एक सा, मानसरोवर माहिं।
बग ढिंढोरै माछरी, हंसा मोती खाहिं।।
जा माया भक्तन तजी, ताहि चहै संसार।
भक्तन भक्ति प्यारी है, और न चित्त विचार।।

अर्थः-""हंस और बगुला दोनों मानसरोवर में रहते हैं, परन्तु हंस तो अपने स्वभाव के कारण मोती का आहार करते हैं जबकि बगुले मछली ढूँढते हैं। भाव यह कि भक्तजन और आम संसारी मनुष्य संसार में ही रहते हैं, परन्तु भक्त जन हंस की न्यार्इं भक्ति के मोती चुगते हैं जबकि आम संसारी मनुष्य माया रुपी मछली की प्राप्ति के यत्न में ही लगे रहते हैं।'' ""जिस माया को भक्तजन अति तुच्छ समझकर त्याग देते हैं, संसारी लोग उसी माया की कामना करते हैं। भक्तों को तो केवल मालिक की भक्ति ही प्रिय है। इसके अतिरिक्त उनके मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं।''

Saturday, February 27, 2016

करनी-कथनी

करनी बिन कथनी इती, ज्यों ससि बिन रजनी।
बिन साहस जिमि सूरमा, भूषण बिन सजनी।।
बाँझ झुलावे पालना, बालक नहीं माहीं।
वस्तु विहीना जानिये, जहँ करनी नाहीं।।
बहु डिम्भी करनी बिना,कथि कथि करि मूए।
सन्तों कथि करनी करी,हरि के सम हूए।। श्री चरण दास जी।

अर्थः-बिना करनी के कथनी ऐसी है जैसे बिना चन्द्रमा के रात या साहस के बिना शूरवीर,नारी के बिना गहना। आचरण के बिना भाषण करते रहना तो ऐसा है जैसे कोई बाँझ स्त्री पालने मे कल्पित बालक को झुलाया करती हो। जहाँ करनी ही नहीं वहां अभीष्ट वस्तु कहां से आयेगी? कितने ही दम्भी अर्थात् केवल दिखावा करने वाले लोग करनी के बिना आत्म ज्ञान की कोरी चर्चा करते करते प्रयाण कर गये-परन्तु सन्त सत्पुरुषों का आदेश है कि जो कुछ कहो उसके अनुसार आचरण भी करो। जिन्होने भी ऐसा किया वे ब्राहृ रुप ही हो गये।

Saturday, February 20, 2016

मन अच्छा बुरा सब जानता है..

मन जानत सब बात, जानत ही औगुन करै।
काहे को कुसलात , हाथ दीप कूएँ परै।।

अर्थः-श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि मनुष्य का मन सभी बातों का जानकार है। वह भली प्रकार जानता है कि भलाई किसमें है और बुराई किसमें? कौन सा काम करने से लाभ होगा और किससे हानि होगी। किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि सब कुछ जानता समझता हुआ भी मानव मन बुराई औगुण स्वार्थ एवं विषय लोलुपता की ओर अधिक आकृष्ट रहता है। यह तो वही बात हुई जैसे कोई हाथ में दीपक लेकर कुएँ में जा गिरे। जहाँ ऐसी अवस्था हो, वहाँ कुशलता की आशा रखना व्यर्थ है।

Friday, February 19, 2016

बहुत जनम बिछुड़े थे माधो!

बहुत जनम बिछुड़े थे माधो! एह जनम तुम्हारे लेखै।
कहैं रैदास आस लगि जीवाँ चिर भयौ दरसन पेखै।।

अर्थः-सन्त रैदास जी का कहना है हे प्रभो! मैं बहुत जन्म तक आपसे बिछुड़ा रहा और अपना प्रत्येक जन्म माया की खातिर बलिदान करता रहा। अब मेरा यह जन्म आपकी खातिर बलिदान हो, तो मेरा काम बने। ऐ मालिक! मैं आपके ही आश्रय जीवित हूँ तथा चिरकाल से आपके दर्शन की झाँकी से वञ्चित हूँ। अब यदि जीवन बलिदान करके भी आपका दर्शन उपलब्ध हो तो मेरे परम सौभाग्य।

Thursday, February 18, 2016

बिरले जल जग ऊबरै

या माया की चोट, सुर नर मुनि नहिं निस्तरै।
ले सतगुरु की ओट बिरले जन जग ऊबरै।।

अर्थः-सत्पुरुष कथन करते हैं माया की शक्ति इतनी प्रबल है कि इसकी चोट से देवता, मुनि और मानव कोई नहीं बच सका। इस प्रबल शक्ति ने समस्त संसार को अपनी लपेट में ले रखा है। इसका विस्तार लम्बा चौड़ा है और इसके प्रहार अत्यन्त गुप्त होते हैं। साधारणतया इस माया के प्रहारों से बच सकना अत्यन्त दुष्कर है। किन्तु  विरले ही ऐसे जीव संसार में होते हैं, जो सन्त सतगुरु की ओट लेकर माया के दाँव पेच से साफ बचकर निकल जाते हैं।

Wednesday, February 17, 2016

अभिमानी चढ़ि कर गिरे

अभिमानी चढ़ि कर गिरे, गये वासना माहिं।
चौरासी भरमत भये, कबहीं निकसैं नाहिं।।

अर्थः-रुप, विद्या, बल, तप कुल आदि के अभिमान में डूबे हुए पुरुष यदि कहीं ऊँची पदवी भाग्यवश पा भी जायें-तो भी उन्हें भाग्यवान न जानना। वे अभी वासनाओं के जाल में फँसे पड़े हैं। चौरासी लाख योनियाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। वे अभागे जीव नरकों के कुण्डों में अभी डुबकियाँ खाएँगे उन्हें छुड़ाने भी कोई नहीं जायेगा। दया निधान सन्त यदि उनके कल्याण के लिये जाएँ भी तो भी वे उन्हें "न' कह देंगे। ऐसा उदण्ड होता है यह अभिमान। यह किसी के घट में पाँव जमा ले सही फिर जब तक उस जन का सर्वनाश न कर ले उसे कल नहीं पड़ती।

Tuesday, February 16, 2016

आँसू टपकै नैंन।

गद गद बानी कंठ में, आँसू टपकै नैंन।
वह तो बिरहिन राम की, तलफत है दिन रैन।।
प्रेम बराबर जोग ना, प्रेम बराबर ज्ञान।
प्रेम भक्ति बिन साधिबो, सबही थोथा ध्यान।।

अर्थः-""सन्त चरनदास जी का कथन है कि जब गला रुँधा हो, वाणी पर नियन्त्रण न रहे तथा इसके साथ ही नेत्रों से छम छम अश्रु बहते हों: तो कहना चाहिए कि आत्मा प्रभु दर्शन के लिये व्याकुल है तथा दिन रात प्रभु प्रियतम के बिरह में तड़प रही है।'' ""पुनः कहते हैं कि प्रेम के समान न योग है, न तप साधन, न ही ज्ञान। अन्य शब्दों में यह कि प्रेम ही सच्चा योग है, यही सच्चा तप है तथा सच्चा ज्ञान भी प्रेम ही है। ऐ साधो! प्रेमाभक्ति के बिना सब ज्ञान ध्यान थोथा और खोखला है।

Monday, February 15, 2016

कागा का कछु लेत है, कोयल का कछु देत।
मीठी वाणी बोल करि, सब का मन हरि लेत।।

अर्थः-कौव्वा भला किसी से क्या छीनता है, जोकि सब लोग उसके प्रति अरुचि दिखाते हैं। और कोयल भला किसी को कौनसा मूल्यवान पदार्थ देती है कि वह सबके मन को भाती है। इस अन्तर का कारण केवल इतना ही है कि कौव्वे की बोली परुष एवं अप्रिय होती है और सभी उसके प्रति अरुचि दर्शाते हैं, जबकि उसकी तुलना में कोयल मधुर वचन कहकर (मीठी बोली बोलकर) सबके मन को मोहित कर लेती है। एक सच्चे भक्त और जिज्ञासु पुरुष का ह्मदय भी सदैव सबके प्रति प्रेम-प्यार और स्नेह से पूर्ण होता है। मधुर भाषण से अन्यों के ह्मदयों को जीत लेता है।

Sunday, February 14, 2016

प्रेमा-भक्ति

रैदास तू काँवच फली, तोहि न छूये कोय।
तैं निज नाम न जानिया, भला कहाँ से होय।।
जा देखैै घिन ऊपजै, नरक-कुण्ड में बास।
प्रेम भक्ति से ऊद्धरै परगट जन रैदास।।

अर्थः-सन्त रैदास जी का जन्म नीच जाति में हुआ था, इसे सब जानते हैं । वे फरमातें हैं, ऐ रैदास! तू काँवच की फली की तरह है, जिसको कोई छूता तक नहीं। (काँवच फली एक जंगली बूटी है, जिस पर देखने में सुन्दर मगर खाने में ज़हरीली फलियाँ लगती हैं। उन्हें खाना तो एक तरफ, उसे कोई छू लेता है उस पर भी ज़हर चढ़ जाता है। इसलिये लोग अधिकतर उसे छूने से परहेज़ करते हैं। दूसरा इशारा यह भी है कि अछूत जाति को छूने से भी कर्मकाण्डी लोग उसी तरह परहेज़ करते हैं जैसे कि ज़हर से) जब तूने निज नाम को नहीं जाना है, तो फिर भला भी किस तरह से हो सकता है? अर्थात् नाम के बिना भलाई और गुण कैसा? फिर फरमाते हैं कि जिस नीच को देखने तक से लोगों को घृणा उत्पन्न होती है और जिसका सदैव गंदगी और नरक में निवास रहता है; उसी नीच जाति का प्राणी प्रेमाभक्ति को पाकर पवित्र तथा पूजनीय बन जाता है। यह बात रैदास जी की मिसाल से प्रगट है।