Sunday, August 28, 2016

कहा कियौ हम आइ कै, कहा करहिंगै जाय।

कहा कियौ हम आइ कै, कहा करहिंगै जाय।
इत्त के भये न उत्त के, चालै मूल गँवाय।।
श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि जब ऐसी अवस्था है तो जीव ने संसार में आकर क्या कुछ किया तथा यहाँ से जाते हुये क्या मुख लेकर मालिक के दरबार में जायेगा। यह तो न इधर का रहा न उधर का अर्थात् न लोक सँवारा और न परलोक ही। प्रत्युत् अपनी सच्ची पूँजी अर्थात् मानव जन्म के अधिकार को भी गँवाकर चल दिया। तात्पर्य यह कि यदि आत्मा के कल्याण के लिये कुछ करता, तो मानव जन्म का अधिकार तो कम-अज़-कम बना रहता। किन्तु जीवन में बुराई की और रुख रखने के कारण अपना यह अधिकार भी गँवा बैठा।

Wednesday, August 24, 2016

प्रभुता को सब को भजै, प्रभु को भजै न कोय।

प्रभुता को सब को भजै, प्रभु को भजै न कोय।
जे कबीर प्रभु को भजैं , प्रभुता चेरी होय।।
अर्थः-प्रभु की दी हुई माया और बड़ाई को तो हरेक चाहता है, किन्तु उस मालिक को कम लोग ही चाहते हैं। श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि जो जीव प्रभु का भजन करते हैं, तो माया और बड़ाई खुद-बखुद ही दासी बनकर उसकी सेवा में हाज़िर रहती हैं।

Monday, August 22, 2016

दया कौन पै कीजिए, का पै निर्दय होय।

दया कौन पै कीजिए, का पै निर्दय होय।
सार्इं के सब जीव हैं, कीरी कुञ्जर दोय।।
अर्थः-ऐ मुमुक्षु पुरुष! तू किस विचार में पड़ा है कि मैं किस जीव को मारुँ और किस पर दया कर दूँ। धिक्कार है तेरी ऐसी समझ को। सभी जीव कीड़ी से लेकर हाथी तक में वही तेरा आत्मा ही ओत-प्रोत है। तू अपने से भिन्न किसको देखना चाहता है? सब में तू ही स्थित है। तू योग पथ पर चला है। तेरी दृष्टि में कण कण के अन्दर वही तेरा मालिक ही मुस्करा रहा है ऐसा विश्वास रखना चाहिये। जन्म मरण के भीषण दुःखों से पहले ही प्राणी आकुल व्याकुल हैं। दुःखियों को तू और क्यों पीड़ा पहुँचाना चाहता है?

Friday, August 19, 2016

कथनी मीठी खाँड सी, करनी विष की लोय।

कथनी मीठी खाँड सी, करनी विष की लोय।
कथनी तजि करनी करै, तो विष से अमृत होय।।
करनी बिन कथनी कथे, गुरु पद लहै न सोय।
बातों के पकवान से, ध्रापा नाहीं होय।।
करनी बिन कथनी कथ, अज्ञानी दिन रात।
कूकर ज्यों भूँसत फिरे, सुनी सुनाई बात।।
अर्थः-""कथनी तो खाँड जैसी मीठी भासती है तथा करनी अथवा आचरण विष के समान कड़वा प्रतीत होता है। परन्तु मनुष्य यदि कथनी बातें त्यागकर अपने सात्विक ज्ञान को आचरण का रुप दे दे, तो विष को भी अमृत बना सकता और बना लेता है।'' ""जो व्यक्ति कथनी बातें तो बढ़ बढ़कर बनाता है, किन्तु आचरण से
कोरा है; वह गुरु भक्ति को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि बातों के पक्वान्नों से आज तक किसी की क्षुधा शान्त होती नहीं देखी गयी। अर्थात् क्षुधातुर मनुष्य यदि उत्तमोत्तम स्वादिष्ट पक्वान्नों के नाम ही रटता रहे, तो उसका पेट कभी भरेगा नहीं। विपरीत इसके यदि रुखी सूखी रोटी के दो कौर खा ले, तो उसकी क्षुधा एवं व्याकुलता का अन्त हो सकता है तथा मन को तुरन्त शान्ति एवं तृप्ति उपलब्ध होती है।'' उन्हें ज्ञानवान नहीं जानो जो शास्त्र ज्ञान को कहते ही रहते हैं उसके अनुसार जीवन को नहीं बनाते। उसकी यदि अज्ञानी से उपमा दी जाये जो रात-दिन अपने मन के विचारों के अनुसार व्यर्थ ही विवाद करता रहता है-तो अनुचित न होगा। ऐसे अविवेकी पुरुष सन्त सत्पुरुषों के विमल वचनों के मरम को नहीं समझ सकते। उसे बुद्धिमान कौन कहेगा? ""यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्''-ज्ञानपूर्वक जिसका कर्म है वह वास्तव में विद्वान है। सन्त महात्माओं के सत्संग का पूरा लाभ किन को होता है? जो महापुरुषो के वचन को जीवन में उतार लेते हैं। जो केवल वाणी के धनी हैं, शास्त्रों के अर्थ ही लगाया करते हैं उन वचनों पर अपने जीवन को नहीं चलाते उन लोगों का चित्र सन्त पलटू दास जी इस तरह उतारते हैं।

Tuesday, August 16, 2016

गुरु मिला तब जानियै, मिटै मोह सन्ताप।

गुरु मिला तब जानियै, मिटै मोह सन्ताप।
हर्ष शोक दाझै नहीं, तब गुरु आपहिं आप।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि पूर्ण परमार्थी गुरु के मिलने का फल यही है कि सेवक अथवा शिष्य के चित से माया मोह के समस्त विकल्प सर्वथा नष्ट हो जावें, जोकि पाप-ताप-सन्ताप को उत्पन्न करने वाले हैं। मोहजनित विकल्प दूर हो गये, तो उनसे उत्पन्न होने वाले ताप सन्ताप और क्लेश भी स्वतः नष्ट हो गये। तब ऐसे सेवक के चित को हर्ष-शोक, सुख-दुःखादि द्वन्द्व विचलित नहीं कर सकते। तथा जब मन की पवित्रता और शुद्धि की ऐसी अवस्था को हस्तगत कर लिया गया; तब उसके परिशुद्ध ह्मदय के स्वच्छ दर्पण में सच्चे गुरु का ही प्रतिबिम्ब दिखायी देने लगता है। अर्थात् शिष्य सेवक का अहं-अभिमान विगलित होकर वहाँ केवल गुरु ही गुरु शेष रह जाता है।

Thursday, August 11, 2016

बन्दा जानै मैं करौं, करणहार करतार।

बन्दा जानै मैं करौं, करणहार करतार। तेरा किया न होयगा, होवै होवनहार।।
होवै होवनहार, भार नर यों ही ढोवै। अपजस करै अपार, नाम नारायण खोवै।।
कहै दीन दरवेश, परै क्यों भरम कै फन्दा। करणहार करतार, करैगा क्या तूँ बन्दा।।

अर्थः-मनुष्य समझता है कि जो कुछ कर रहा हूँ, बस मैं ही कर रहा हूँ; जबकि वास्तविकता यह है कि सब कुछ करने और कराने वाला मालिक ही है। ऐ मनुष्य! तेरे करने धरने से कुछ भी होने वाला नहीं। होगा तो वही, जो होनहार है। अर्थात् जो मालिक की मौज है तथा जैसा मालिक चाहेगा, वैसा और वही कुछ होगा। सो जब होना वही कुछ है, जो मालिक ने पहले से ही रचा रखा है; तो फिर यही कहा जायेगा कि मनुष्य अंह अभिमान के वशीभूत होकर व्यर्थ ही मैं मेरी का बोझा अपने सिर पर ढोता है तथा इस अभिमान में मालिक के नाम को भुलाकर बहुत बड़ी हानि उठा रहा है। सन्त दीन दरवेश साहिब का कथन है कि ऐ बन्दे! तू भ्रम के फन्दे में क्यों फँस रहा है। सब कुछ करने करानेहार तो वह मालिक ही है। तू किस गणना में है कि कुछ करके दिखला सकेगा।(इस शब्द में मालिक की मौज को शिरोधार्य करने का उपदेश है। जिसे भक्ति कहते हैं। वह यथार्थतः मालिक की मौज में राज़ी रहने तथा सिर झुका देने का ही नाम है।

Sunday, August 7, 2016

ध्यान लगावहु त्रिपुटी द्वार, गहि सुषमना बिहँगम सार।

ध्यान लगावहु त्रिपुटी द्वार, गहि सुषमना बिहँगम सार।
पैठि पाताल में पश्चिम द्वार, चढ़ि सुमेरु भव उतरहु पार।।
हफ़त कमल नीके हम बूझा, अठयें बिना एको नहिं दूजा।
"शाह फकीरा' यह सब धंद, सुरति लगाउ जहाँ वह चंद।।


अर्थः-ऐ जीव! त्रिकुटी के द्वार में अपना ध्यान लगा। सुषमना नाड़ी को पकड़कर बिहंगम चाल की सार गहनी को धारण करके। पश्चिम के द्वार से पाताल में प्रवेश कर जाओ और सुमेरु-पर्वत पर चढ़कर भवसागर के पार कर लो। हमने सात कमलों को भली-भान्ति समझ लिया है। उन सातों से आगे कोई आठवाँ नहीं है। शाह फकीर साहिब का कथन है कि संसार के धन्धे सब मिथ्या हैं। अपनी सुरति को वहाँ लगाओ, जहाँ चन्द्रमा का प्रकाश तथा उजाला है। यह सब अन्तरीव अभ्यास का इशारा है। मनुष्य के शरीर के अंदर ईड़ा-पिंगला और सुषमना तीन बड़ी नाड़ियाँ, जो नाभि देश से उठकर दिमाग की तरफ या पिण्डदेश से ब्राहृाण्ड देश को जाती है। इनमें से मुख्य सुषमना नाड़ी है, जो बीच की है। इसी के द्वारा प्राण को ऊपर चढ़ाकर त्रिकुटी में मालिक की ज्योति का ध्यान किया जाता है। जब सुरति शरीर को छोड़कर ऊपर चढ़ने लगती है, तो सात कमलों के सात स्थान है, जो उसके मार्ग में आते हैं सुरति इनको पार करती हुई और ऊपर चढ़ती हुई उस उच्चतम स्थान पर जा पुहँचती है, जिसे सुमेरु पर्वत की चोटी का नाम दिया गया है और जहाँ प्रकाश ही प्रकाश सब ओर फैला हुआ है। इसका भेद पूर्ण गुरु से प्राप्त होता है। सतगुरु की दया से ही ये मन्ज़िले तय हो सकती हैं। जिससे अन्तरीव शान्ति प्राप्त होती है।

Wednesday, August 3, 2016

सो दिन कैसा होयगा, गुरु गहैंगे बाँहि।

सो दिन कैसा होयगा, गुरु गहैंगे बाँहि।
अपना करि बैठावहीं, चरन कमल की छाँहि।।
बिरह कमंडल कर लिये, बैरागी दोउ नैन।
माँगैं दरस मधूकरी छके रहैं दिन रैन।।
अँखियाँ तो झार्इं परी पंथ निहार निहार।
जिभ्या तो छाला परा, नाम पुकार पुकार।।
कबीर बैद बुलाइया, पकरि के देखी बाँहि।
बैद न वेदन जानई, करक करेजे माँहि।।
जाहु बैद घर आपने तेरा किया न हो।
जिन या वेदन निर्मई, भला करैगा सोय।।
अर्थः-""वह कैसा भाग्यवन्त दिन होगा जब कि गुरुदेव मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लेंगे और मुझे अपना जान कर अपने चरणकमलों की छाया में बिठलायेंगे?'' ""मेरे दोनों नयन वैरागियों के सदृश हैं, जो अपने हाथों में बिरह (तड़प) रुप कमण्डल लिये हुये केवल दर्शन की भिक्षा माँगती रहती हैं; जिसे पाकर वे रात-दिन तृप्त हुई रहें।'' ""प्रियतम के आने का मार्ग देखते देखते नेत्रों के गिर्द काले हलके पड़ गये हैं और उनका नाम पुकारते पुकारते जीभ पर छाले पड़ गये; किन्तु वे हैं कि अब तक नहीं आये।'' "" श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि हमारी ऐसी दीन दशा देखकर लोगों ने रोगग्रस्त जानकर हकीम को बुलवा लिया। हकीम ने आकर नब्ज़ देखी; किन्तु हकीम इस रोग को नहीं परख सकता, क्योंकि कसक अथवा पीड़ा तो कलेजे में है।'' ""ऐ वैद्य! अपने घर लौट जाओ। तेरे किये से कुछ भी नहीं होने का। यह रोग तो उसी के हाथ से अच्छा हो सकेगा,जिसने ये पीड़ा प्रदान की है।''