Saturday, March 26, 2016

सतगुरु से परिचय बिना, भरमत फिरै अन्धेर।

सतगुरु से  परिचय बिना, भरमत फिरै अन्धेर।
सूरज के निकसै बिना, कैसे होय सवेर।।

अर्थः-जब तक सन्त सतगुरु का परिचय नहीं मिला अर्थात् जीव जब तक उनसे यथार्थ दर्शन करने वाली दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं कर लेता; तब तक जीव मोह भ्रम के अन्धकार में भटकता रहता है। जिस प्रकार सूर्य के उदय हुए बिना दिन का उजाला नहीं होता; वैसे ही सतगुरु कृपा के बिना मोह अज्ञान और भ्रम का नाश नहीं हो सकता।

Friday, March 25, 2016

जैसे लहर समुद्र की, सतगुरु कीन्हा वाक।

जैसे लहर समुद्र की, सतगुरु कीन्हा वाक।
वाक हमारा फेर दिया, तो हम तुम कैसा साक।।

अर्थः-सतगुरु के ह्मदय सागर से एक मौज उठी-जो वचन के रुप में शिष्य पर उतरी। अगर शिष्य वह वचन नहीं मानता और उस वाक्य को वापस लौटा देता है तो परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि फिर गुरु और शिष्य में नाता क्या रहा? यह सम्बन्ध तो वचन और आज्ञा का है और वचन मानकर आज्ञानुसार सेवा करने से सेवक के अन्दर स्वयं ही भक्ति प्रेम व सच्चाई और रुहानियत घर करने लगती है इसके विपरीत यदि श्रद्धाभावना में थोड़ी सी भी कमी आ जाय तो सेवक का पैर सेवा की सीढ़ी से फिसल पड़ता है और जीव कहाँ से कहाँ जा गिरता है क्योंकि सेवक की पूँजी तो सेवा ही है जो सेवक को स्वामी से मिलाकर रखती है।

Wednesday, March 23, 2016

कबीर गुरु की भक्ति का, मनमें बहुत हुलास।

कबीर गुरु की भक्ति का, मनमें बहुत हुलास।
मन मनसा माँझै बिना, होन चहत है दास।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि मनमें गुरु-भक्ति प्राप्त करने की लालसा तो बहुत है; परन्तु यह मन है कि सांसारिक इच्छाओं तथा मनमति को मलियामेट किये बिना ही गुरु के दास अथवा भक्त का दर्ज़ा पा लेना चाहता है। जब ऐसी दशा है, तो सफलता कैसे प्राप्त हो?

Sunday, March 20, 2016

जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।

जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोेनों हाथ उलीचिये, यही सयाना काम।।

अर्थः-ऐ विचारशील मानव! यदि नौका के अन्दर आवश्यकता से अधिक जल भर जाये और घर में बहुत अधिक संसार का ऐश्वर्य एकत्र हो जाय तो विचक्षण पुरुष को चाहिये कि दोनों वस्तुओं अर्थात् जल और धन सम्पदा को नाव और घर में से शक्ति के अनुसार बाहर उछाल दे। नहीं तो वह नैया और वह गृहस्थ जीवन विनाश के कारण बन जाएंगे।

Friday, March 18, 2016

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञान करि, अज्ञानी भुगतै रोय।।

अर्थः-महापुरुषों ने फरमाया कि शरीर को धारण करके प्रत्येक जीव को सुख-दुःख भोगना पड़ता है, परन्तु अन्तर केवल इतना है कि विचारवान गुरुमुखजन मालिक की मौज और अपने भाग्य का लिखा समझ कर प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सहन करते हैं जबकि आम संसारी मनुष्य दुःख के समय रोता और चीखता-चिल्लाता रहता है। इसलिये दुःखों के आने पर दुःखी मत होवो, अपितु मालिक का प्रसाद समझकर उसमें सुख मानो और हाय-हाय के स्थान पर वाह-वाह करते हुये जीवन के चार दिन प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर लो। चाहे कितना भी दुःख-कष्ट अनुभव हो, तुम सदैव मालिक की मौज में प्रसन्न रहना सीखो।

Wednesday, March 16, 2016

मीन काटि जल धोइयै, खाये अधिक प्यास।

मीन काटि जल धोइयै, खाये अधिक प्यास।
रहिमन प्रीति सराहियै, मुएहू मीत की आस।।
अर्थः-मछली को काटकर जल में धो दिया जाता है फिर उसे पकाकर खाया जाता है। खाने के उदरस्त होने पर भी जल की प्यास लगती है। यह इस बात का प्रमाण है कि मछली मरकर, कटकर और पककर भी अपने प्रियतम के मिलन के लिये तड़प रही है। वह अब भी "जल-जल' पुकार रही है।
मरे हुये भी उदर में जल चाहत है मीन।।
अर्थात् मछली मरकर भी पेट में जल माँगती है। प्रिय-मिलन की तीव्र उत्कण्ठा का भला इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है? सन्तों का कहना है कि अपने मालिक से प्रेम करना है तो ऐसा ही करो। यह एक आदर्श उदाहरण है। कि प्रेम तो वही है कि प्रेमी प्रियतम के बिना क्षणमात्र जीवित न रह सके तथा मरकर भी प्रियतम का ही नाम पुकारता रहे।

Monday, March 14, 2016

अन्धे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।।

ज्ञानी से कहिये कहा, कहत कबीर लजाय।
अन्धे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी कथन करते हैं कि हम इन ज्ञानियों से जो केवल वेदादि शास्त्रों के शब्दों और अर्थों को ही भलीभाँति जानते हैं। जिनका जीवन उन शास्त्रों के वचनों के अनुसार ढला नहीं है। क्या कहें? उनसे हमारा अनुभव सिद्ध बातें करना ऐसे ही निरर्थक होगा जैसे कोई नट बड़ी सुन्दरता से नाच करता हो परन्तु जिसकी प्रसन्नता के लिये वह जो कुछ कर रहा है वह तो नेत्रहीन है। वह क्या जाने कि नृत्य-कला कैसी होती है?

Sunday, March 13, 2016

साधु आवत देखि कै, मन में करै मरोर।

साधु आवत देखि कै, मन में करै मरोर।
सो तो होसी चूहरा, बसै गाँव की छोर।।
आवत साधु न हरषिया, जात न दीया रोय।
कह कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ ते होय।।
अर्थः-""जो मनुष्य घर पर बैठे सन्तों के दर्शन पाकर अपने अहोभाग्य नहीं मानता प्रत्युत मन में खीझता है, वह शूद्र कुल का नीच प्राणी बनेगा और उसे अपने गाँव के अन्दर कोई भी नहीं रहने देगा। उसका निवास गाँव के पार किनारे पर होगा।'' ""उचित तो यह है कि सन्तों के शुभ, मनोरम दर्शन हों तो चित्त गुलाब के फूल की न्यार्इं खिल कर प्रफुल्लित हो जाए और उनसे वियुक्त होने पर ह्मदय में विषाद भर जाये। जिस प्रकार शरीर से सम्बन्ध रखने वाले किसी सगे सम्बन्धी के बिछुड़ने पर दुःख होता है उसी प्रकार आत्मा के निकट सम्बन्धी सन्त सत्पुरुषों के वियोग में भी आँसू छलक पड़ें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। आत्मा की अपेक्षा शरीर के सम्बन्धियों को हम अधिक महत्त्व देते हैं। अपने आत्मीयजन यदि घर से जाने लगें तो हम लाख विचार करते हैं और कहते हैं कि इसे हमारे घर से खाली नहीं जाना है। कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिये। नहीं तो हमारी मान-हानि होगी। लोग हमारी निन्दा अथवा चर्चा करेंगे। ऐसी अनेक बातें सोचकर जैसे भी हो, जहाँ से भी माँग कर लाना पड़े, उस समय अतिथि का यथोचित आदरसम्मान अवश्य करेंगे और करते हैं और ऐसा करना भी चाहिये। मतलब यह है कि जिस प्रकार इन झूठे सम्बन्धियों से सम्बन्ध जोड़े रखने में अपनी शान समझते हैं उसी प्रकार आत्मा के जो सच्चे सम्बन्धी हैं उनके प्रति हमारे दिल में कितने गुना अधिक सम्बन्ध जोड़े रखने की तीव्र उत्कण्ठा का होना अनिवार्य है।

Saturday, March 12, 2016

गुरु प्रेम में मानवा, तन मन सभी रंगाय।

गुरु प्रेम में मानवा, तन मन सभी रंगाय।
फिर तू देखु विचारि करि, मोह लोभ कत जाय।।

अर्थः-ऐ मनुष्य! अपने तन मन को एक बार गुरु-प्रेम के रंग में पूरी तरह रंगा ले। तत्पश्चात तू स्वयं अपने अन्तर्मन में झाँककर देख कि लोभ-मोहादिक जिन विकारों ने तुझे चिरकाल से परेशान कर रखा था, किस प्रकार प्रेम प्रताप से पराजित होकर अपने आप ही भागने लग जाते हैं।

Friday, March 11, 2016

तू मत जानै बावरे, मेरा है सब कोय।

तू मत जानै बावरे, मेरा है सब कोय।
पिंड प्रान से बँधि रहा, सो अपना नहिं होय।।

अर्थः- ऐ बावले मनुष्य! तू यह मत समझ कि मैं जगत के भोगों और सुख-सामग्री को पाकर उनका मालिक बन गया हूँ और यह सब कुछ मेरा है। नहीं, इस भ्रम में मत रह। अन्यान्य सांसारिक सम्पत्ति का मालिक बनना तो दूर की बात रही; यह तेरा शरीर जो प्राणों की डोरी से बँधा हुआ हर समय तेरे साथ लगा है, यह भी तेरा अपना नहीं हो सकता। क्योंकि यह काल के मुख का ग्रास है और वह इसे एक दिन अवश्य तुझसे छीन ले जावेगा।

Thursday, March 10, 2016

चींटी चावल लै चली, बिच में मिलि गइ दार।

चींटी चावल लै चली, बिच में मिलि गइ दार।
कह कबीर दोउ ना मिलै, इक लै दूजी डार।।


अर्थः-च्यूंटी का उदाहरण देते हुए फरमाते हैं कि वह चावल का दाना ले जा रही थी। मार्ग में उसे दाल का दाना पड़ा हुआ मिल गया। लोभ वश उसने सोचा कि इसे भी ले चलूँ। जब वह उसे उठाने लगी तो चावल गिर पड़ा। उस एक छोटे से मुख में दो दाने तो समा नहीं सकते थे। परन्तु वह उसे भी छोड़ना नहीं चाहती थी। जब वह दोबारा चावल उठाती तो दाल का कण गिर पड़ता। इसी उधेड़ बुन में उसे पर्याप्त समय लग गया। उसकी यह दशा देखकर महापुरुषों ने कथन किया कि दोनों वस्तुएं एक साथ नहीं मिल सकतीं। तुझे हर अवस्था में एक को छोड़ना और दूसरी को लेना होगा।

Wednesday, March 9, 2016

सीस झुकायां गिर पड़े, बहु पापन की पोट।
तातें सीस झुकाइये, लगे न जम की चोट।।
सीस तुम्हारा जायेगा, कर सतगुरु की भेंट।
नाम निरन्तर लीजिये, जम की लगे न फेंट।।
अर्थः-ऐ मित्र! सिर झुकाते ही पापों की गठड़ी के गिर जाने से तू महाकाल की चोट से बच जाएगा-अतः तू सदा अपना सिर सत्पुरुषों के चरणों में झुकाए रख-अपितु अपना सिर उनके समर्पित ही कर दे वरना इसे काल ही ले जायेगा। अगर तू लगातार नाम भक्ति में मग्न रहेगा तो यमराज तेरे निकट भी न फटकेगा।

Monday, March 7, 2016

कोई तो तन मन दुखी

कोई तो तन मन दुःखी, कोई चित्त उदास।
एक एक दुःख सबन को, सुखी सन्त का दास।।

अर्थः-इस संसार में कोई तन से दुःखी है, तो कोई मन से दुःखी है तथा कोई अन्य अपने चित्त में सांसारिक चिन्ताओं को बसाकर दुःखी हो रहा है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दुःख एक न एक रोग चिमटा हुआ है। परन्तु जो सन्तों महापुरुषों का सच्चा दास अथवा सेवक है, वही वास्तविक अर्थों में सुखी है। इसलिये कि वह महापुरुषों की आज्ञा एवं मौज अनुसार आचरण करता हुआ अपने जीवन को भक्ति के साँचे में ढालता है।

Sunday, March 6, 2016

अरब खरब लौं लच्छमी, उदय अस्त लौं राज।

अरब खरब लौं लच्छमी, उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जौ निज मरन है, तौ आवै कौनै काज।।

अर्थः-सन्त तुसली साहिब का विचार है कि चाहे अरबों खरबों के मूल्य का धन एकत्र कर लिया जाये और चाहे सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक अर्थात् जहाँ से सूर्योदय होता है, वहां से लेकर सूर्यास्त की सीमा तक का साम्राज्य भी अपने अधिकार में हो। परन्तु जबकि अपना मृत्यु के मुख में जाना निश्चित है और यह भी सिद्ध है कि मृत्यु-समय ये धन और अधिकार अपनी कुछ भी सहायता नहीं कर सकेंगे; तो फिर इनका लाभ क्या हुआ?

Saturday, March 5, 2016

बिन गुरु भक्ति मोह जग, कैसे काटा जाय।।

पहले गुरु भक्ति दृढ़ करो, पाछे और उपाय।
बिन गुरु भक्ति मोह जग, कैसे काटा जाय।।

अर्थः-जिज्ञासु और भक्ति के अभिलाषी के लिये परमसन्त श्री कबीर साहिब उपदेश करते हैं कि पहले गुरु की भक्ति में दृढ़ हो जाओ, और सब उपाय पीछे करना; क्योंकि जगत का मोह जाल बिना गुरु की भक्ति के नहीं काटा जा सकता। जब तक जगत की मोह ममता का फन्दा जीव के गले में पड़ा रहता है, तब तक सब  साधन निष्फल हो जाते हैं। मोह का फंदा काटने के लिये गुरु की भक्ति अत्यन्त आवश्यक है। मुक्त पुरुष सन्त सद्गुर की सेवा और कृपा के बिना आत्मा पर पड़े हुये मन-माया के बंधन कदापि नहीं कटते। बंधनों के कटे बिना कोई भी भवसागर के पार नहीं उतर सकता।

Thursday, March 3, 2016

तीन लोक चेरी भये

तीन लोक चोरी भई, सबका धन हर लीन्ह।
बिना सीस का चोरवा, पड़ा न काहू चीन्ह।।


अर्थः-परमसन्त श्री कबीर साहिब जी का वचन है कि तीनों लोकों में चोरी 

हो रही है। हर किसी की गाँठ से सुख शान्ति का धन चुरा लिया जाता है 

परन्तु बिना सीस का वह चोर किसी को नज़र नहीं आता।