Monday, October 31, 2016

काहू न कोउ सुख दुख कर दाता।

चौपाईः-काहू न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सबु भ्राता।।
योग-वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा।।
जन्म मरण यहाँ लगि जग जालू। सम्पत्ति विपति कर्म अरु कालू।।
धरणि धाम धन पुर परिवारु। स्वर्ग नरक जहाँ लग व्यवहारु।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। माया कृत परमार्थ नाहीं।।
दोहाः-सपने होय भिखारि नृप, रंक नाकपति होय।
      जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जग जोय।।
अर्थः-लक्ष्मण जी मीठी,कोमल,ज्ञान वैराग्य तथा भक्ति से भरपूर वाणी से बोले-ऐ निषादराज! संसार में न कोई किसी को सुख पहुँचा सकता है, न दुःख। हे भाई! सुख दुःख जीव को अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। योग अर्थात् मिलाप वियोग अर्थात् बिछोड़ा। भले तथा बुरे कर्मों का भोगना, मित्र-शत्रु तथा मध्यम अर्थात् निष्पक्ष आदि सब भ्रम का जाल है। इसके अतिरिक्त जन्म-मरण, जहां तक इस संसार का पसारा है-सम्पत्ति-विपत्ति-कर्म और काल-पृथ्वी घर-नगर-कुटम्ब,स्वर्ग व नरक एवं जो कुछ भी संसार में देखने सुनने और विचारने में आता है, यह सब माया का पसारा है। इसमें परमार्थ नाम मात्र भी नहीं है। जैसे सपने में राजा भिखारी होवे और कंगाल इन्द्र हो जावे परन्तु जागने पर लाभ या हानि कुछ नहीं-वैसे ही जगत् का प्रपंच स्वप्न के समान मिथ्या है। जागने पर पता लगता है कि न कोई लाभ हुआ है और न कोई हानि हुई है। यह तो सब माया का खेल था, यथार्थ कुछ भी नहीं था।

Wednesday, October 26, 2016

जब लग जानैं मुझ ते कछु होइ।

जब लग जानैं मुझ ते कछु होइ। तब उस कउ सुखु नाही कोइ।।
जब इह जानै मैं किछु करता। तब लगु गरभ जोनि महि फिरता।।
जब धारै कोऊ बैरी मीतु। तब लगु निहचलु नाही चीतु।।
जब लगु मोह मगन संगि माइ। तब लगु धरमराइ देई सजाई।।
प्रभ किरपा ते बंधन तूटै। गुरु प्रसादि नानक हउ छूटै।।
अर्थः-सब बंधनों का मूल ""हूँ मैं'' है। इस ""हूँ मैं'' के भ्रम-जाल में बंधा हुआ जीव जब तक यह समझता है कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ, तब तक सुख की स्थिति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। जब यह समझेगा कि अमुक कार्य मैने किया है, यदि मैं अमुक कार्य न करता तो वह काम हो ही न पाता, तो इस अभिमान के कारण ही उसे जन्म मरण के चक्र में भटकना पड़ता है। अपने को कर्ता मान कर जब तक किसी को मित्र और किसी को शत्रु जानेगा, तब तक उसका चित्त भी चंचल बना रहेगा और उसे सुख शान्ति प्राप्त न होगी। जब तक मोह माया में मन मग्न रहेगा तब तक धर्मराज का दण्ड भी सहना पड़ेगा। परन्तु जब सन्त सद्गुरु के सत्संग के प्रताप से उनसे नाम-रत्न की प्राप्ति हो जायेगी और भाग्यशाली जीव उस नाम की कमाई करने लगेगा, तो नाम के प्रताप से उस पर कुल मालिक की दया हो जायेगी और सब बंधन टूट जायेंगे सन्त सद्गुरु द्वारा प्रदत्त नाम में वह शक्ति है जो पल भर में पापी को पावन बना दे।

Sunday, October 23, 2016

अंतरि गुरु आराधणा, जिहवा जपि गुर नाउँ।

अंतरि गुरु आराधणा, जिहवा जपि गुर नाउँ।
नेत्रीं सतगुरु पेखणा, श्रवणी सुनना गुरु नाउँ।।
सतगुर सेती रतियाँ, दरगह पाइयै ठाउँ।।
कहु नानक कृपा करे जिसनों एह वथु देइ।।
जग महि उत्तम काढीअहि विरले केई केइ।। (गूजरी की वार म-5)
अर्थः-प्रेमी औेर गुरुमुख को चाहिए कि अपने अन्तर में सदैव गुरु की आराधना करे अर्थात् इष्टदेव सतगुरु को अन्तर्मन में बसाकर रखे। जिह्वा द्वारा वह सदा गुरु की महिमा उपमा का गान तथा गुरु के नाम का जप करे। नेत्रों द्वारा सर्वदा सतगुरु का दर्शन करे। तथा जब सतगुरु के स्थूल स्वरुप का दर्शन उपलब्ध न हो, तब नेत्रों को उनके ज्योति-स्वरुप के ध्यान में निमग्न रखे। अपने कानों के द्वारा वह निरन्तर गुरु के नाम की महिमा, गुरु उपदेश तथा महापुरुषों के वचन श्रवण करे। ये सब कार्य-क्रम उसके लिये अनुकूल एवं पौष्टिक भोजन का काम देगा। इस अभ्यास से प्रेमा भक्ति के विचारों को परिपक्वता तथा दृढ़ता प्राप्त होगी। तथा इस प्रकार की कार्यप्रणाली का परिणाम यह कि तन मन प्राण और इन्द्रियाँ सब के सब सतगुरु-प्रेम के रंग में रंगे जावेंगे तथा उस रंग में डूबे रहेंगे। फिर जो कोई स्वयं को पूर्णरुपेण गुरु प्रेम के रंग में डुबो देता है, उसे मालिक की दर्गाह में ठिकाना मिलता है। ऐसा सच्चा प्रेमी ही मालिक के दरबार में समादर प्राप्त करता तथा मालिक की दृष्टि में प्रिय होता है। प्रेमा भक्ति को अपने अंग-प्रत्यंग में रचा लेने से ही ऐसा उत्तम पद प्राप्त किया जा सकता है। श्री गुरु नानकदेव जी फरमातें हैं कि जिस पर मालिक की दया-कृपा हो; उसे ही इस उत्तम पदार्थ भक्ति का वरदान प्राप्त होता है। प्रेम के रंग में पूरा तरह डूबे रहना एवं इष्टदेव के ध्यान में निरन्तर मग्न रहना वरदान ही तो है। इस प्रकार की प्रेमी गुरुमुख आत्माएँ संसार में उत्तम आत्माएँ होती हैं तथा ऐसी आत्माएँ विरली ही हुआ करती हैं।

Wednesday, October 19, 2016

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा।

ज्ञान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होई नहिं बारा।।
अस बिचारि हरि भगति सयाने। मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अविद्या नासा।।
उमा जोग जप दान तप, नाना व्रत मख नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तस, जस निस्केवल प्रेम।।
पन्नगारी सुनु प्रेम सम, भजन न दूसर आन।।
यह बिचारि मुनि पुनि पुनि, करत राम गुन गान।।
अर्थः-""काकभुशुण्डी जी पक्षिराज गरुड़ को उपदेश करते हैं कि ज्ञान मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, जिससे गिरते देर नहीं लगती। यही सोच विचारकर जो सयाने भक्तजन हैं, वे मुक्ति का भी निरादर करके भक्ति की अभिलाषा करते हैं। क्योंकि प्रेमाभक्ति के द्वारा बिना किसी विशेष यत्न और परिश्रम के उस अज्ञान का नाश हो जाता है, जो जीवात्मा को संसार के बन्धन में जकड़ने का मूल कारण है।'' ""भगवान शिव पार्वती के प्रति कहते हैं, हे उमा! योग,जप, दान, तपस्या और भाँति भाँति के व्रत यज्ञ नियम आदि मिलकर भी साधक को प्रभु कृपा का वैसा अधिकारी नहीं बना सकते, जैसा कि अनन्य प्रेम बना सकता है। पुनः काकभुशुण्डी जी कहते हैं, हे गरुड़ जी! प्रेमाभक्ति जैसा अन्य भजन नहीं है। ऐसा विचारकर मुनिजन पुनः पुनः प्रभु के नाम के गीत गाते हैं।''

Saturday, October 15, 2016

धनु संपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई।।

धनु संपै माइआ संचीऐ अंते दुखदाई।।
घर मंदर महल सवारीअहि किछु साथ न जाई।।
हर रंगी तुरे नित पालीअहि कितै कामि न आई।।
जन लावहु चितु हरिनाम सिउ अंति होइ सखाई।।
जन नानक नाम धिआइआ गुरमुखि सुख पाई।।
अर्थः-धन-सम्पत्ति तथा माया के पदार्थ मनुष्य संचित करता है, पर अन्त में वे दुखदायी ही सिद्ध होते हैं। घर-मकान तथा महल और अनेक प्रकार की सवारियाँ-इनमें से कुछ भी मनुष्य के साथ नहीं जाता। अनेक रंगों के घोड़े आदि पाले जाते हैं और इस प्रकार अपनी सम्पन्नता तथा अपना वैभव प्रदर्शित किया जाता है; परन्तु ये अन्ततः किसी काम नहीं आते। हे सज्जनो! हरि के नाम के साथ मन लगाओ जो अन्त में मित्र बने और काम आए। श्री गुरु अमरदास जी फरमाते हैं कि जो मनुष्य सद्गुरु से सान्निध्य में रहकर तथा गुरुमुख बनकर नाम-स्मरण करता है, वह सदा सुख पाता है।

Monday, October 10, 2016

सन्तो! सहज समाधि भली।।

सन्तो! सहज समाधि भली।।
गुरु परताप भयौ जा दिन से, सुरति न अनत चली।।
आँखि न मूँदौं कान न रुधौं, काया कष्ट न धारौं।।
खुले नैन मैं हँस हँस देखौं, सुन्दर रुप निहारौं।।
कहौं सु नाम सुनौं सोइ सिमरन, खावौं पियौं सो पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखौं, भाउ मिटावौं दूजा।।
जहाँ जहाँ जावौं सोइ परिकरमा, जो किछु करौं सु सेवा।
जब सोवौं तौ करौं डंडवत, पूजौं और न देवा।।
सबदि निरंतरि मनुआ राता, मलिन वासना तियागी।
ऊठत बैठत कबहुँ न बिसरै, ऐसी ताड़ी लागी।।
कहैं कबीर यह उन्मुनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुःख सुख कै इक परै परम सुख, तेहि सुख रहा समाई।।
अर्थः-ऐ सन्तो! सहज-समाधि की अवस्था अत्युत्तम है। जब से मुझपर पूर्ण सतगुरु की कृपा हुई है; तब से मेरी सुरति अचल होकर सहज-समाधि की अवस्था में स्थिर है और कभी भूलकर भी अन्यत्र नहीं जाती। मैं न नेत्र बंद करता हूँ, न कान मूँदता हूँ और न ही शरीर को कठिन तप अथवा भूख-प्यास सहन करने का कष्ट देता हूँ। प्रत्युत् खुले नयनों से हँस हँस कर सर्वत्र अपने मालिक इष्टदेव के सुन्दर स्वरुप का दर्शन प्रतिक्षण प्राप्त करता रहता हूँ। जो कुछ मैं जिह्वा से कहता हूँ, वही मालिक का नाम और मालिक की महिमा है। जो कुछ श्रवण द्वारा सुनता हूँ, वही मानों मालिक का सुमिरण है। तथा जो कुछ मैं खाता पीता हूँ, वह मानो प्रभु की पूजा है। घर हो या जंगल, मेरे लिये दोनों में कोई भेद नहीं। मैं दोनों को एक समान देखता हूँ, क्योंकि मैने अपने चित से द्वैत अथवा भेदभाव को मिटा दिया है। मैं जहाँ जहाँ चलकर जाता हूँ, वह मानो मालिक की परिक्रमा है। तथा जो कुछ मैं करता हूँ, वह सब मेरे मालिक की सेवा-टहल है। जब मैं सो जाता हूँ, तब मानों मालिक के चरणों में दण्डवत कर रहा होता हूँ। मैं अपने इष्टदेव सतगुरु को छोड़कर किसी अन्य देव की पूजा नहीं करता। मेरा मन गुरु के शब्द में अनवरत रचा रमा रहता है। मन में से समस्त मलिन वासना-वृत्तियाँ मैने निकाल फेंकी हैं। मलिक के चरणों के साथ मेरी ऐसी लिव लगी है कि उठते बैठते, सोते जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते और काम-काज करते कभी एक क्षण भी मैं मालिक के ध्यान से ग़ाफिल नही होता। श्री कबीर साहिब जी का वचन है कि यह उन्मुनि अर्थात् मन को प्रभु चरणों में लीन कर रखने की रहनी है, जिसे मैने स्पष्ट सब्दों में वर्णन कर दिया है। सांसारिक सुख-दुःख तथा हर्ष शोकादि द्वन्द्वों की अवस्था से बहुत ऊपर एक परम सुख अथवा परमानन्द की सहज अवस्था है; जिसमें मेरा मन निरन्तर समाया रहता है।

Friday, October 7, 2016

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।

भवजल अगम अथाह, थाह नहीं मिलै ठिकाना।
सतगुरु केवट मिलै, पार घर अपना जाना।।
जग रचना जंजाल, जीव माया ने घेरा।
तलुसी लोभ मोह बस परै, करैं चौरासी फेरा।।
इन्द्री रस सुख स्वाद, बाद ले जनम बिगारा।
जिभ्या रस बस काज, पेट भया विष्ठा सारा।
टुक जीवन के काज, लाज नहिं मन में आवै।
तुलसी काल खड़ा सिर ऊपर, घड़ी घड़ियाल बजावै।।
अर्थः-""यह संसार एक सागर है। इसकी थाह पाना जीवट का काम है। कोई विरला साहसी पुरुष ही इसमें कूदकर इससे पार होने की प्रबल चेष्टा करता है। तिस पर भी अपने बल पर भला कौन पार हो सका है। जब तक सतगुरु मल्लाह को अपने जीवन की नैय्या न सौंप दी जाये, पार हो सकना असम्भव।'' ""इस अटपटे संसार की रचना को समझ लेना आसान नहीं। लोभ और मोह यहाँ ऐसे मदमत्त गजराज हैं कि जीव को अपने पाँव तले मसलकर रख देते हैं। जिस आवागमन के चक्र से छूटने के लिये जीव मानव देह में आया था, ये बरबस ही उस ऊँचाई से खींचकर नीचे गिरा देते हैं और जीव फिर उसी चौरासी के चक्र में जा पड़ता है।'' ""इन्द्रियों के रसों के स्वाद में पड़कर जीव ने अपना सारा जीवन अकारथ गँवा दिया। संसार के भाँति भाँति के स्वादिष्ट पदार्थों का रस लेने को जीभ लपलपाती है; मगर खाने के बाद वे सब पेट में गन्दगी बन जाते हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्त्ति के लिये कुछ भी जतन नहीं किया, इतने पर भी जीव को लाज नहीं आती। तुलसी साहिब का कथन है कि काल सिर पर खड़ा हर समय कूच का नक्कारा बजा रहा है और सचेत कर रहा है कि इस रहे सहे समय में अपना काम बना ले। परन्तु इन्द्रियों के रसों में गाफिल इनसान सुनता कहाँ है?''

Monday, October 3, 2016

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।

घुँघची भर जे बोइयै, उपजै पंसेरी आठ।
डेरा परिया काल का, निशिदन रोकै बाट।।
अर्थः-खाहिश का बीज ऐसा है कि यदि मुट्ठी भर बोया जाये, तो मन भर उगता है। ज़रा सी खाहिश बढ़कर और फैलकर इतना दीर्घ सूत्रपात करती हैं कि फिर उनके फैलाये जाल को तोड़ सकना असम्भव सा हो जाता है। और यह तो मानी हुई बात
है ही कि जिस मन में वासनाओं का तूफान होगा वहाँ काल का डेरा भी अवश्य जमा रहेगा और वह रात-दिन तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति मार्ग में रुकावट डालता रहेगा।
मन भरि के जे बोईयै, घुँघची भर नहीं होय।
कहा हमार मानियो नहीं, जन्म जायेगो खोय।।
अर्थः-इन मानसिक विकारों को जिस कदर भी तरक्की दी जाये, इनसे कुछ भी हासिल नहीं होता। अगर ये बढ़ते-बढ़ते मन भर की मात्रा में भी हो जायें तो भी ये जीव को मुट्ठी भर लाभ तक नहीं पहुँचा सकते। ये जिस कदर ज़्यादा बढ़ेंगे उसी कदर ही इनसे रुहानी नुकसान की उम्मींद है। इसीलिये सन्त जन फरमाते हैं कि ऐ जीव! अगर हमारे सत्उपदेश से लापरवाही करके इन्हीं मानसिक विकारों के फेर में ही पड़े रह गये तो फिर यह कीमती इनसानी जन्म यों ही खोया जायेगा। इसलिये जहाँ तक हो सके जीव को इन मानसिक विकारों से और बुराईयों से किनारा करके सत्पुरुषों की राहनुमाई में चलकर नाम और भक्ति की सच्ची कमाई करके ऊँचे दर्ज़े को प्राप्त करना चाहिये।