Sunday, October 23, 2016

अंतरि गुरु आराधणा, जिहवा जपि गुर नाउँ।

अंतरि गुरु आराधणा, जिहवा जपि गुर नाउँ।
नेत्रीं सतगुरु पेखणा, श्रवणी सुनना गुरु नाउँ।।
सतगुर सेती रतियाँ, दरगह पाइयै ठाउँ।।
कहु नानक कृपा करे जिसनों एह वथु देइ।।
जग महि उत्तम काढीअहि विरले केई केइ।। (गूजरी की वार म-5)
अर्थः-प्रेमी औेर गुरुमुख को चाहिए कि अपने अन्तर में सदैव गुरु की आराधना करे अर्थात् इष्टदेव सतगुरु को अन्तर्मन में बसाकर रखे। जिह्वा द्वारा वह सदा गुरु की महिमा उपमा का गान तथा गुरु के नाम का जप करे। नेत्रों द्वारा सर्वदा सतगुरु का दर्शन करे। तथा जब सतगुरु के स्थूल स्वरुप का दर्शन उपलब्ध न हो, तब नेत्रों को उनके ज्योति-स्वरुप के ध्यान में निमग्न रखे। अपने कानों के द्वारा वह निरन्तर गुरु के नाम की महिमा, गुरु उपदेश तथा महापुरुषों के वचन श्रवण करे। ये सब कार्य-क्रम उसके लिये अनुकूल एवं पौष्टिक भोजन का काम देगा। इस अभ्यास से प्रेमा भक्ति के विचारों को परिपक्वता तथा दृढ़ता प्राप्त होगी। तथा इस प्रकार की कार्यप्रणाली का परिणाम यह कि तन मन प्राण और इन्द्रियाँ सब के सब सतगुरु-प्रेम के रंग में रंगे जावेंगे तथा उस रंग में डूबे रहेंगे। फिर जो कोई स्वयं को पूर्णरुपेण गुरु प्रेम के रंग में डुबो देता है, उसे मालिक की दर्गाह में ठिकाना मिलता है। ऐसा सच्चा प्रेमी ही मालिक के दरबार में समादर प्राप्त करता तथा मालिक की दृष्टि में प्रिय होता है। प्रेमा भक्ति को अपने अंग-प्रत्यंग में रचा लेने से ही ऐसा उत्तम पद प्राप्त किया जा सकता है। श्री गुरु नानकदेव जी फरमातें हैं कि जिस पर मालिक की दया-कृपा हो; उसे ही इस उत्तम पदार्थ भक्ति का वरदान प्राप्त होता है। प्रेम के रंग में पूरा तरह डूबे रहना एवं इष्टदेव के ध्यान में निरन्तर मग्न रहना वरदान ही तो है। इस प्रकार की प्रेमी गुरुमुख आत्माएँ संसार में उत्तम आत्माएँ होती हैं तथा ऐसी आत्माएँ विरली ही हुआ करती हैं।

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