Monday, October 10, 2016

सन्तो! सहज समाधि भली।।

सन्तो! सहज समाधि भली।।
गुरु परताप भयौ जा दिन से, सुरति न अनत चली।।
आँखि न मूँदौं कान न रुधौं, काया कष्ट न धारौं।।
खुले नैन मैं हँस हँस देखौं, सुन्दर रुप निहारौं।।
कहौं सु नाम सुनौं सोइ सिमरन, खावौं पियौं सो पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखौं, भाउ मिटावौं दूजा।।
जहाँ जहाँ जावौं सोइ परिकरमा, जो किछु करौं सु सेवा।
जब सोवौं तौ करौं डंडवत, पूजौं और न देवा।।
सबदि निरंतरि मनुआ राता, मलिन वासना तियागी।
ऊठत बैठत कबहुँ न बिसरै, ऐसी ताड़ी लागी।।
कहैं कबीर यह उन्मुनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुःख सुख कै इक परै परम सुख, तेहि सुख रहा समाई।।
अर्थः-ऐ सन्तो! सहज-समाधि की अवस्था अत्युत्तम है। जब से मुझपर पूर्ण सतगुरु की कृपा हुई है; तब से मेरी सुरति अचल होकर सहज-समाधि की अवस्था में स्थिर है और कभी भूलकर भी अन्यत्र नहीं जाती। मैं न नेत्र बंद करता हूँ, न कान मूँदता हूँ और न ही शरीर को कठिन तप अथवा भूख-प्यास सहन करने का कष्ट देता हूँ। प्रत्युत् खुले नयनों से हँस हँस कर सर्वत्र अपने मालिक इष्टदेव के सुन्दर स्वरुप का दर्शन प्रतिक्षण प्राप्त करता रहता हूँ। जो कुछ मैं जिह्वा से कहता हूँ, वही मालिक का नाम और मालिक की महिमा है। जो कुछ श्रवण द्वारा सुनता हूँ, वही मानों मालिक का सुमिरण है। तथा जो कुछ मैं खाता पीता हूँ, वह मानो प्रभु की पूजा है। घर हो या जंगल, मेरे लिये दोनों में कोई भेद नहीं। मैं दोनों को एक समान देखता हूँ, क्योंकि मैने अपने चित से द्वैत अथवा भेदभाव को मिटा दिया है। मैं जहाँ जहाँ चलकर जाता हूँ, वह मानो मालिक की परिक्रमा है। तथा जो कुछ मैं करता हूँ, वह सब मेरे मालिक की सेवा-टहल है। जब मैं सो जाता हूँ, तब मानों मालिक के चरणों में दण्डवत कर रहा होता हूँ। मैं अपने इष्टदेव सतगुरु को छोड़कर किसी अन्य देव की पूजा नहीं करता। मेरा मन गुरु के शब्द में अनवरत रचा रमा रहता है। मन में से समस्त मलिन वासना-वृत्तियाँ मैने निकाल फेंकी हैं। मलिक के चरणों के साथ मेरी ऐसी लिव लगी है कि उठते बैठते, सोते जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते और काम-काज करते कभी एक क्षण भी मैं मालिक के ध्यान से ग़ाफिल नही होता। श्री कबीर साहिब जी का वचन है कि यह उन्मुनि अर्थात् मन को प्रभु चरणों में लीन कर रखने की रहनी है, जिसे मैने स्पष्ट सब्दों में वर्णन कर दिया है। सांसारिक सुख-दुःख तथा हर्ष शोकादि द्वन्द्वों की अवस्था से बहुत ऊपर एक परम सुख अथवा परमानन्द की सहज अवस्था है; जिसमें मेरा मन निरन्तर समाया रहता है।

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