बन्दा जानै मैं करौं, करणहार करतार। तेरा किया न होयगा, होवै होवनहार।।
होवै होवनहार, भार नर यों ही ढोवै। अपजस करै अपार, नाम नारायण खोवै।।
कहै दीन दरवेश, परै क्यों भरम कै फन्दा। करणहार करतार, करैगा क्या तूँ बन्दा।।
होवै होवनहार, भार नर यों ही ढोवै। अपजस करै अपार, नाम नारायण खोवै।।
कहै दीन दरवेश, परै क्यों भरम कै फन्दा। करणहार करतार, करैगा क्या तूँ बन्दा।।
अर्थः-मनुष्य समझता है कि जो कुछ कर रहा हूँ, बस मैं ही कर रहा हूँ; जबकि वास्तविकता यह है कि सब कुछ करने और कराने वाला मालिक ही है। ऐ मनुष्य! तेरे करने धरने से कुछ भी होने वाला नहीं। होगा तो वही, जो होनहार है। अर्थात् जो मालिक की मौज है तथा जैसा मालिक चाहेगा, वैसा और वही कुछ होगा। सो जब होना वही कुछ है, जो मालिक ने पहले से ही रचा रखा है; तो फिर यही कहा जायेगा कि मनुष्य अंह अभिमान के वशीभूत होकर व्यर्थ ही मैं मेरी का बोझा अपने सिर पर ढोता है तथा इस अभिमान में मालिक के नाम को भुलाकर बहुत बड़ी हानि उठा रहा है। सन्त दीन दरवेश साहिब का कथन है कि ऐ बन्दे! तू भ्रम के फन्दे में क्यों फँस रहा है। सब कुछ करने करानेहार तो वह मालिक ही है। तू किस गणना में है कि कुछ करके दिखला सकेगा।(इस शब्द में मालिक की मौज को शिरोधार्य करने का उपदेश है। जिसे भक्ति कहते हैं। वह यथार्थतः मालिक की मौज में राज़ी रहने तथा सिर झुका देने का ही नाम है।
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