Sunday, November 27, 2016

अब सुनु परम विमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।.

अब सुनु परम विमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि  बखानी।.
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर विविध प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सबते अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी।।
तिन्ह महँ प्रिय विरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहुँ ते अति प्रिय बिग्यानी।।
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहुँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।
भगतिहीन विरञ्चि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवन्त अति नीचउ प्राणी। मोहि प्रानप्रिय अस मम बानी।।
अर्थः-श्री भगवान राम चन्द्र जी महाराज अपने प्रिय भक्त काकभुशुण्डि जी को उपदेश कर रहे हैं कि हे काक! अब मेरी पवित्र वाणी को सुन; जो सत्य है, तथा जिसकी बड़ाई वेद शास्त्रों में भी गायी गई है। मैं तुझे अपना निजी सिद्धान्त अर्थात् रहस्य की बात सुनाता हूँ। इसे सुनकर मन में धारण कर ले तथा सबका मोह त्यागकर मेरे भजन में मन लगा। वह रहस्य यह कि सम्पूर्ण सृष्टि मेरी माया के द्वारा उत्पन्न हूई है। सृष्टि में जितने भी चर अथवा अचर जीव हैं, वे सब मेरे ही उपजाए हुए हैं तथा सभी मुझे समान रुप से प्रिय हैं। इन सब जीव प्राणियों में मुझे मनुष्य सर्वाधिक प्रिय है, क्योंकि यह मेरा ही प्रतिरुप है। साधारण मनुष्यों में मुझे ब्रााहृण तथा ब्रााहृणों में वेदपाठी मुझे अधिक प्रिय हैं। उनसे भी अधिक प्रिय वे हैं, जो धर्म कर्म की मर्यादा में चलने वाले हैं। पुनः उनसे भी अधिक प्रिय वे हैं, जो वैराग्यवान हैं। उनसे भी ज्ञानी अधिक प्रिय हैं तथा ज्ञानियों से कहीं बढ़कर मुझे विज्ञानी प्रिय हैं। विज्ञानियों से भी बढ़कर मुझे अपने दास और सेवक प्रिय हैं, जिन्हें एकमात्र मेरा ही आधार है तथा किसी अन्य की आशा जिनके चित में नहीं है। मैं यह तथ्य तुझसे बार बार कहता हूँ कि अपने सेवक के समान मुझे अन्य कोई भी प्रिय नहीं है। यदि साक्षात् ब्राहृा भी मेरे सम्मुख आ जावे और जब मैं उसमें भी भक्ति का अभाव पाऊँगा, तो वह मेरे लिये एक साधारण जीव होगा-इसके विपरीत यदि कोई नीचवंश में उत्पन्न जीव भक्तिभाव में रँगा है, तो वह मुझे प्राणों के समान प्रिय है-यह मेरा अचल सत्य वचन है।

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