कवणु सु अखरु कवण गुणु कवणु सु मणीआ मंतु।।
कवणु से वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु।।
अर्थः-मैं कौन सी विद्या पढ़ूँ कौन सा गुण अपनाऊँ, कौन सी मणियों की माला पहनूँ तथा कौन सा मंत्र जपूं और कौन सा वेष धारण करुं, जिससे अपने मालिक को प्रसन्न कर सकूं और उसे अपना बना सकूं?
कवणु से वेसो हउ करी जितु वसि आवै कंतु।।
अर्थः-मैं कौन सी विद्या पढ़ूँ कौन सा गुण अपनाऊँ, कौन सी मणियों की माला पहनूँ तथा कौन सा मंत्र जपूं और कौन सा वेष धारण करुं, जिससे अपने मालिक को प्रसन्न कर सकूं और उसे अपना बना सकूं?
निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहवा मणिआ मंतु।
ऐ त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु।।
अर्थः-दीनता और नम्रतापूर्वक रहने की विद्या पढ़, दूसरे की भूल को क्षमा कर देने का गुण अपना तथा मधुर और नम्र वचनों की माला पहन। जब आत्मा यह वेष धारण करेगी, तभी मालिक को प्राप्त करने में सफल होगी। दीनतापूर्वक रहना, क्षमा करना तथा मधुर वचन बोलना-ये तीनों ही एक प्रकार के वशीमंत्र हैं जिनको जीवन में अपनाने से मालिक तो क्या तीनों लोकों को वश में किया जा सकता है।
No comments:
Post a Comment