जैसे लहर समुद्र की, सतगुरु कीन्हा वाक।
वाक हमारा फेर दिया, तो हम तुम कैसा साक।।
अर्थः-सतगुरु के ह्मदय सागर से एक मौज उठी-जो वचन के रुप में शिष्य पर उतरी। अगर शिष्य वह वचन नहीं मानता और उस वाक्य को वापस लौटा देता है तो परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि फिर गुरु और शिष्य में नाता क्या रहा? यह सम्बन्ध तो वचन और आज्ञा का है और वचन मानकर आज्ञानुसार सेवा करने से सेवक के अन्दर स्वयं ही भक्ति प्रेम व सच्चाई और रुहानियत घर करने लगती है इसके विपरीत यदि श्रद्धाभावना में थोड़ी सी भी कमी आ जाय तो सेवक का पैर सेवा की सीढ़ी से फिसल पड़ता है और जीव कहाँ से कहाँ जा गिरता है क्योंकि सेवक की पूँजी तो सेवा ही है जो सेवक को स्वामी से मिलाकर रखती है।
No comments:
Post a Comment