Sunday, March 13, 2016

साधु आवत देखि कै, मन में करै मरोर।

साधु आवत देखि कै, मन में करै मरोर।
सो तो होसी चूहरा, बसै गाँव की छोर।।
आवत साधु न हरषिया, जात न दीया रोय।
कह कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ ते होय।।
अर्थः-""जो मनुष्य घर पर बैठे सन्तों के दर्शन पाकर अपने अहोभाग्य नहीं मानता प्रत्युत मन में खीझता है, वह शूद्र कुल का नीच प्राणी बनेगा और उसे अपने गाँव के अन्दर कोई भी नहीं रहने देगा। उसका निवास गाँव के पार किनारे पर होगा।'' ""उचित तो यह है कि सन्तों के शुभ, मनोरम दर्शन हों तो चित्त गुलाब के फूल की न्यार्इं खिल कर प्रफुल्लित हो जाए और उनसे वियुक्त होने पर ह्मदय में विषाद भर जाये। जिस प्रकार शरीर से सम्बन्ध रखने वाले किसी सगे सम्बन्धी के बिछुड़ने पर दुःख होता है उसी प्रकार आत्मा के निकट सम्बन्धी सन्त सत्पुरुषों के वियोग में भी आँसू छलक पड़ें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। आत्मा की अपेक्षा शरीर के सम्बन्धियों को हम अधिक महत्त्व देते हैं। अपने आत्मीयजन यदि घर से जाने लगें तो हम लाख विचार करते हैं और कहते हैं कि इसे हमारे घर से खाली नहीं जाना है। कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिये। नहीं तो हमारी मान-हानि होगी। लोग हमारी निन्दा अथवा चर्चा करेंगे। ऐसी अनेक बातें सोचकर जैसे भी हो, जहाँ से भी माँग कर लाना पड़े, उस समय अतिथि का यथोचित आदरसम्मान अवश्य करेंगे और करते हैं और ऐसा करना भी चाहिये। मतलब यह है कि जिस प्रकार इन झूठे सम्बन्धियों से सम्बन्ध जोड़े रखने में अपनी शान समझते हैं उसी प्रकार आत्मा के जो सच्चे सम्बन्धी हैं उनके प्रति हमारे दिल में कितने गुना अधिक सम्बन्ध जोड़े रखने की तीव्र उत्कण्ठा का होना अनिवार्य है।

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