Sunday, January 24, 2016

गुरु से कर मेल गँवारा...

गुरु से कर मेल गँवारा। का सोचत बारम्बारा।।
जब पार उतरना चहिये। तब केवट से मिलि रहिये।।
जब उतरि जाय भव पारा। तब छूटै यह संसारा।।
जब दरसन देखा चहिये। तब दर्पन माँजत रहिये।।
जब दर्पन लागत काई। तब दरस कहँ ते पाई।।

अर्थः-ऐ जीव! यदि संसार की कल्पना, क्लेश और अशान्ति से छुटकारा पाना है, तो गुरु से मिलने का जतन कर इसमें बार बार सोचने-विचारने की क्या आवश्यकता है? सीधी सी बात है कि जिसे पार उतरना हो, वह केवट से मिले। तथा जब तू मल्लाह से मिलकर भवसागर के पार हो जायेगा; तब संसार के जितने भी क्लेश हैं, वे सब अपने आप ही छूट जायेंगे। दूसरी बात जिसे अपना मुख देखने की इच्छा हो; उसे चाहिये कि दर्पण को माँझकर साफ करे, तब मुख साफ साफ देखने में अपने आप ही आ जायेगा। इसी प्रकार जब तक मन रुपी दर्पण पर मायावी संस्कारों की मैल चढ़ी है, तब तक भला आत्म-स्वरुप कैसे देखने में आ सकता है? ज़रुरत है कि गुरु के शब्द की रगड़ से पहले मन के दर्पण को शुद्ध कर लिया जाये, तब स्वयंमेव अपने स्वरुप का साक्षात्कार हो जायेगा।

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