कह कबीर छूछा घट बोले। भरया होय सो कबहुं न डोले।।
छुद्र नदी भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
छुद्र नदी भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
अर्थः-""फरमाते हैं कि सदैव रीता घड़ा ही आवाज़ करता है, भरा हुआ घड़ा आवाज़ नहीं करता।'' ""छोटे छोटे नदी-नाले वर्षा के दिनों में किनारों को तोड़ते हुये उछल-उछल कर बहने लगते हैं जैसे अज्ञानी और दुष्ट मनुष्य थोड़े से धन पर भी अहंकार करने लगता है। इसके विपरीत गम्भीर नदियां बारह मास ही अत्यन्त शान्त गति से प्रवाहित होती रहती हैं जैसे कुलीन धनवान् लोग करोड़पति होकर भी विनीत, सुशील एवं शान्तचित्त बने रहते हैं।
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