सपने होइ भिखारि नृपु, रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियं जोइ।।
अर्थः-एक
राजा जो अपने भव्य राजभवन में बहुमुल्य मख़मली गद्दों पर रात्रि समय
विश्राम करता है; वह स्वप्न में अपने आपको द्वार द्वार भिक्षाटन करने वाले
भिखारी के रुप में देखता है और अत्यन्त दुःखी होता है। इसी प्रकार एक
दीन-दरिद्र प्राणी स्वप्न में अपने को स्वर्ग के राजा इन्द्र के सिंहासन पर
आसीन देखता है; तो वह अपने मन में अति प्रसन्न होता तथा अभिमान से फूल
जाता है। परन्तु जब दोनों जागते हैं; तब राजा स्वयं को पूर्ववत् मख़मली
गद्दे पर सोया हुआ पाता है और दरिद्र अपने को यथावत् द्वार द्वार का भिखारी
पाता है। जाग्रत में न एक को कुछ लाभ हुआ, न दूसरे को कुछ हानि हुई। दोनों
ही ज्यों के त्यों रहे। इसी प्रकार जगत के समस्त दृश्य भी स्वप्निल हैं
तथा इनमें जो सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि उपजाने वाली घटनाएँ घटित एवं अनुभूत
होती हैं। यह सब भी स्वप्नवत् मिथ्या और भ्रममूलक हैं। इनमें यथार्थ कुछ भी
नहीं।
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