गुरु मिला तब जानियै, मिटै मोह सन्ताप।
हर्ष शोक दाझै नहीं, तब गुरु आपहिं आप।।
हर्ष शोक दाझै नहीं, तब गुरु आपहिं आप।।
अर्थः-श्री कबीर साहिब जी का कथन है कि पूर्ण परमार्थी गुरु के मिलने का फल यही है कि सेवक अथवा शिष्य के चित से माया मोह के समस्त विकल्प सर्वथा नष्ट हो जावें, जोकि पाप-ताप-सन्ताप को उत्पन्न करने वाले हैं। मोहजनित विकल्प दूर हो गये, तो उनसे उत्पन्न होने वाले ताप सन्ताप और क्लेश भी स्वतः नष्ट हो गये। तब ऐसे सेवक के चित को हर्ष-शोक, सुख-दुःखादि द्वन्द्व विचलित नहीं कर सकते। तथा जब मन की पवित्रता और शुद्धि की ऐसी अवस्था को हस्तगत कर लिया गया; तब उसके परिशुद्ध ह्मदय के स्वच्छ दर्पण में सच्चे गुरु का ही प्रतिबिम्ब दिखायी देने लगता है। अर्थात् शिष्य सेवक का अहं-अभिमान विगलित होकर वहाँ केवल गुरु ही गुरु शेष रह जाता है
Very TRUE
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