Friday, February 5, 2016

बादशाहों का नामो निशां मिटा...

क्या क्या न बादशाहों का नामो-निशाँ मिटा। हर एक अपने वक्त का नौशीरवाँ मिटा।।
मौसम गया बहार का, रंगं-खिज़ाँ मिटा। जो फूल इस चमन में खिला बेगुमाँ मिटा।।
दरपेश सब के वासते मंज़िल अजीब है। ग़ाफ़िल ब होश बाश, अजल अनकरीब है।।

अर्थः-कैसे कैसे महान चक्रवर्ती सम्राटों का नाम निशान जगत से मिट गया। अपने समय का प्रत्येक नौशीरवां और विक्रमादित्य जैसा पराक्रमी होकर भी अन्ततः नष्ट हो गया। बसन्तऋतु की बहार कुछ दिनों तक अपनी ध्वजा फहराती रही, फिर वह भी मिट गयी और उसका स्थान पतझड़ ने ले लिया। पतझड़ का रंग भी चार दिन से अधिक न टिक सका। इस परिवर्तनशील संसार में किसी को भी स्थायित्व प्राप्त नहीं है। जगत के उपवन में जो भी पुष्प खिला, वह निस्सन्देह एक दिन विनाश की भेंट चढ़ गया। क्योंकि प्रकृति के अटल नियमानुसार सब के लिये एक विचित्र गन्तव्य स्थान की ओर जाना निश्चित है। इसलिये ऐ ग़ाफ़िल मनुष्य! सचेत हो कि मृत्यु सिर पर खड़ी है तथा वह क्षण क्षण तुझसे निकटतर होती जा रही है। क्या खबर कब आकर तुझे दबोच लेगी।

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